By - Amitesh Pandey
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मंगलवार को संसद में एक बयान दिया, जिसमें उन्होंने तवांग (अरुणाचल प्रदेश) के यांगत्से क्षेत्र में चीन के सैनिकों द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के अतिक्रमण करने की एक विफल कोशिश की जानकारी दी। उन्होंने यह भी बताया कि चीनी पक्ष को इस तरह की हरकतों से बाज आने और सीमा पर शांति बनाए रखने को कहा गया है। उन्होंने देश को आश्वस्त किया कि भारतीय सेनाएं इस तरह के किसी भी प्रयास को ‘विफल करती रहेंगी’।
चीन का यह अतिक्रमण साल 2020 की गलवान घटना के बाद अत्यंत गंभीर मामला है। 2020 में नियंत्रण रेखा के पश्चिमी क्षेत्र में अतिक्रमण का प्रयास किया गया था, और इस बार लगभग वैसी ही घटना पूर्वी सेक्टर में हुई है। इसका अर्थ है कि दोनों पक्षों के वरिष्ठ सैन्य कमांडरों की 16 बैठकों के बाद भी चीन को यह कतई परवाह नहीं है कि उसकी ऐसी गतिविधियों से द्विपक्षीय संबंधों पर कितना बुरा असर पड़ सकता है और पड़ रहा है।
भारत के प्रति चीन के व्यवहार को समझने के लिए हमें व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत है। चीन एक उभरती वैश्विक ताकत है। उसकी टक्कर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों से है। वह अमेरिका का प्रभाव विश्व भर में, विशेष रूप से हिंद-प्रशांत क्षेत्र (इंडो-पैसिफिक) में कम करना चाहता है। वह भारत को अमेरिका के साथ देखता है, और इस बात से बेहद परेशान है। वह भारत के विकास और उद्भव को एक चुनौती के रूप में देखता है। उसका यही प्रयास है कि कैसे भारत के बढ़ते प्रभाव को रोका जाए। वास्तविक नियंत्रण रेखा का बार-बार उल्लंघन और अतिक्रमण करके वह नई दिल्ली को एक बड़े दबाव में रखना चाहता है।
चीन के आक्रामक रवैये की कई झलकियां हाल में देखने को मिली हैं। कुछ महीने पहले अमेरिकी संसद की स्पीकर नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद चीन इतना अधिक भड़क गया था कि उसने ताइवान जलडमरूमध्य में अपनी सैन्य गतिविधियां इतनी अधिक बढ़ा दीं कि ताइवान व अमेरिका के साथ युद्ध का खतरा पैदा हो गया था। दक्षिण चीन सागर में उसने ‘नाइन डैश लाइन’ के भीतर के सभी द्वीपों पर कथित तौर पर अवैध कब्जा कर लिया है। पूर्वी चीन सागर में सेनकाकू द्वीप समूहों को लेकर जापान के साथ उसकी खटपट लगातार चलती रहती है। चीन क्वॉड को, जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं, अपने लिए एक बड़ा खतरा मानता है।
अक्तूबर में हुई चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस के बाद राष्ट्रपति शी जिनपिंग माओ के बाद चीन के सबसे सशक्त नेताओं के रूप में उभरे हैं। लिहाजा यह मानकर हमें चलना चाहिए कि चीन के तेवर भविष्य में और कड़े होंगे, और द्विपक्षीय संबंधों में तनाव व जटिलताएं बढ़ेंगी। अच्छी बात यह है कि विश्व जनमत चीन के व्यवहार को संदेहास्पद मानता है। अमेरिका की ताजा ‘नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रैटिजी’ में बीजिंग को वाशिंगटन की प्रभुता के लिए एक बड़ी चुनौती माना गया है। हिंद-प्रशांत में चीन के आक्रामक रुख के कारण ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन ने परमाणु पनडुब्बियों को बनाने के लिए ‘ऑकस’ समझौता किया है, जिसे चीन अपने लिए एक गंभीर चुनौती के रूप में देखता है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान भी त्रिपक्षीय ढांचे में एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं। इस मंच का उद्देश्य भी चीन से निपटना ही है।
तो क्या मान लिया जाए कि चीन का अरुणाचल प्रदेश में ताजा अतिक्रमण-प्रयास विश्व जनमत को सचेत और सावधान करेगा? क्या ये देश भारत के पक्ष में खुलकर सामने आएंगे और चीन की आलोचना करेंगे? ऐसे निष्कर्ष निकालना फिलहाल ठीक नहीं है। अधिकतर देशों के, और जिसमें भारत भी शामिल है, चीन के साथ व्यापक व्यापारिक संबंध हैं। सैकड़ों विदेशी कंपनियां अब भी चीन में निवेश और कारोबार कर रही हैं। चीन ने मध्य एशिया, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, लातीन अमेरिका के दर्जनों देशों से अपने संबंध बढ़ाए हैं। बेशक अधिकतर देश चीन के आक्रामक रूप को पसंद नहीं करते, लेकिन वे खुलकर उसकी निंदा नहीं करेंगे। यहां तक कि रूस भी, जो हमारा घनिष्ठ मित्र है, आज इस स्थिति में नहीं है कि वह चीन के खिलाफ भारत के साथ खड़ा दिखे।
ऐसी स्थिति में भारत के सामने क्या विकल्प हैं? राजनयिक स्तर पर हमें विश्व को सचेत करना होगा कि चीन के बार-बार अतिक्रमण-प्रयासों को उसकी व्यापक मंशा के रूप में देखा जाए। चीन जो कुछ हमारे खिलाफ कर रहा है, कुछ-कुछ वैसा ही वह जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और अन्य देशों के विरुद्ध भी कर रहा है। हमें क्वाड देशों से आग्रह करना चाहिए कि वे चीन की हालिया अतिक्रमण-साजिश के बारे में अपनी सख्त प्रतिक्रिया दें। साथ ही, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की चीन के संदर्भ में जो चिंताएं हैं, उसके बारे में हमें भी अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए।
भारत अगले एक साल के लिए जी-20 का अध्यक्ष है। चीन भी इस समूह का सदस्य है। भारत चाहेगा कि सितंबर, 2023 में होने वाला जी-20 शिखर सम्मेलन सफलतापूर्वक संपन्न हो, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि भारत किसी प्रकार से अपनी संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच आने दे सकता है। चीन इस गलतफहमी में न रहे कि वह जी-20 शिखर सम्मेलन के चलते भारत की मजबूरी का फायदा उठा सकता है। ऐसा संदेश भारत की तरफ से जाना चाहिए।
कुल मिलाकर, भारत को अपने ही बल पर चीन से निपटना होगा। यह स्वाभाविक है कि दूसरे देश अपने-अपने हितों पर अधिक जोर देंगे। हमें अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाना पड़ेगा, ताकि चीन किसी मुगालते में न रहे। भारत की सैन्य क्षमताओं में और सुधार किया जाना चाहिए। अब हम इस गलतफहमी में नहीं रह सकते कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति और स्थिरता में कोई दिलचस्पी रखता है। हमें सीमा क्षेत्रों में सड़कों, पुलों, सुरंगों, इमारतों और अन्य बुनियादी ढांचों का तीव्र विकास करना होगा। इसी प्रकार, अपनी सैन्य शक्ति को सीमा क्षेत्रों में इस प्रकार तैनात करना होगा कि चीन के साथ किसी अप्रिय स्थिति से बचना सुनिश्चित हो सके। अगर भारत सशक्त होगा, तो इसका संदेश पूरे विश्व को जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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