रामचंद्र गुहा
हरिजन पत्रिका ने 30 नवंबर, 1947 के अपने अंक में भारतीय नागरिक बन चुकीं एक अंग्रेज महिला की एक अपील प्रकाशित की थी। उन्होंने लिखा, 'बाईस बरस पहले एक भटकती हुई पथिक के रूप में मैंने भारत में अपनी आत्मा को दोबारा हासिल किया। भारत जिसके इतिहास के कल्प, आध्यात्मिक भव्यता के महाकाव्यों में खुद को दोहरा रहे थे। असीम प्रेरणा और उत्साह के साथ मैं उम्मीद की रोशनी में डूबने लगी, जो कि युद्धग्रस्त डूबती दुनिया में उसके समक्ष प्रकट हो रही थी। बापू में मुझे मार्गदर्शक सितारा मिला; हिंदुइज्म (हिंदुवाद) में मुझे सत्य शब्द मिला; भारत में मां।' इसके बाद उन्होंने लिखा, 'मुझे नहीं पता था कि बाईस साल बाद मुझे मां के स्तनों को फटे हुए और अपने ही बच्चों द्वारा लगाए गए जख्मों से खून बहते हुए देखना होगा और सत्य शब्द उन्हीं लोगों द्वारा कुचल दिया जाएगा, जो कि खुद को हिंदू कहते हैं।'
यह दुखी भारतीय थीं, मीरा बेन, जो कि एक अंग्रेज एडमिरल की बेटी थीं और गांधी के साथ काम करने के लिए नवंबर, 1925 में भारत आई थीं। वह अपने बापू के साथ साबरमती और सेवाग्राम आश्रमों में रहीं, भारत की स्वतंत्रता को लेकर युनाइेड किंगडम तथा अमेरिका की यात्राएं कीं और अपने अपनाए गए देश के लिए कई बार लंबी अवधि तक जेल में रहीं। यह सब करते हुए उन्होंने खुद को सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से छुआछूत को खत्म करने, खादी को बढ़ावा देने और हिंदू-मुस्लिम सद्भाव कायम करने जैसे गांधीवादी विचारों के लिए समर्पित कर दिया था।
मीरा द्वारा लिखी गई अपील विशेष रूप से इनमें से अंतिम विचारों को संबोधित थे। उपमहाद्वीप के विभाजन के पहले और उसके बाद दंगे भड़क उठे थे जिनमें हिंदू, मुस्लिम और सिख ये सभी पीड़ित भी थे और अपराधी भी। मीरा के गुरु, गांधी, हिंसा को रोकने के लिए वीरतापूर्वक काम कर रहे थे। सितंबर में, कलकत्ता में शांति स्थापित करने के बाद, वह दिल्ली की ओर आगे बढ़े, जहां स्थिति खतरनाक थी, क्योंकि विभाजन के कारण विस्थापित होने वाले हिंदू और सिख शरणार्थी तब दिल्ली में ही रह रहे मुस्लिमों से बदला लेना चाहते थे। गांधी यह उम्मीद कर रहे थे कि उत्तर भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा कायम करने के बाद वह सीमा पार कर पाकिस्तान में ही रह गए हिंदुओं और सिखों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए काम करेंगे।
हालांकि दिल्ली और उसके आसपास शांति कायम करना गांधी ने जैसा सोचा था, उससे कहीं अधिक मुश्किल साबित हुआ था। पहले से नाराज हिंदू और सिख शरणार्थियों की भावनाओं को भड़काने में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे उग्र संगठनों ने मदद की, जो कि पहले से भारत में रहने वाले मुस्लिमों के प्रति घृणा फैलाने में लगे हुए थे। दिल्ली पुलिस की 24 अक्तूबर, 1947 की एक रिपोर्ट में आरएसएस के बारे में यह लिखा गयाः 'संघ के कार्यकर्ताओं के मुताबिक मुस्लिम तभी भारत छोड़ेंगे, जब उनके पूर्ण उन्मूलन के लिए एक और आंदोलन चलाया जाए, जैसा कि कुछ समय पूर्व दिल्ली में चलाया गया था...वे इसके लिए महात्मा गांधी के दिल्ली से प्रस्थान करने का इंतजार कर रहे थे, क्योंकि वह मानते थे कि जब तक महात्मा दिल्ली में रहेंगे, तब तक वह अपनी योजना पर अमल नहीं कर सकते।' और 15 नवंबर, 1947 की खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट कहती हैः 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता, विशेष रूप से पश्चिम पंजाब से आए शरणार्थी दिवाली के बाद दिल्ली में सांप्रदायिक गड़बड़ी करना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन्हें दिल्ली में मुसलमानों का आना-जाना बर्दाश्त नहीं...।'
अक्तूबर और नवंबर, 1947 के महीनों के दौरान मीरा दिल्ली में रह रही थीं, जब यह घृणा से भरी विचारधारा अधिक से अधिक हिंदुओं के मन में जड़ें जमा रही थी। इसे रोकने के लिए उन्होंने सामान्य तौर पर भारतीयों और विशेष रूप से हिंदुओं के लिए अपील जारी की। उन्होंने पूछा, 'क्या इसी के लिए हमने अपनी आजादी हासिल की? इन धार्मिक कट्टरपंथियों का खुद को 'हिंदू' कहने का आखिर खेल क्या था?'
अगर वे सफल हो गए, तो वे किस तरह का देश बनाएंगे? मीरा ने लिखा, 'जिस भारत का सपना हिंदू चरमपंथियों ने देखा था, वह स्वयंभू, और खुद को श्रेष्ठ बताने वाली एक नस्ल से आबाद होगा, जिसकी आध्यात्मिक असहिष्णुता सच्चे हिंदू धर्म का नकार होगी। सभी मुस्लिमों को उनके पुश्तैनी घरों से बेरहमी से उखाड़ फेंका जाएगा और बाहर निकाल दिया जाएगा, और इस स्थिति में यह हैरत की बात होगी कि अन्य गैर-हिंदुओं का भी वही हश्र न हो।'
मीरा ने अपनी अपील का समापन इस तरह से कियाः 'लेकिन मेरा दिल और दिमाग इस प्रतिकूल तस्वीर को अपरिहार्य मानने से इनकार करता है। हिंदू प्रकृति पहले अपना संतुलन फिर से हासिल करेगी, और महसूस करेगी कि कट्टर लोगों के समूह द्वारा उसे अंधेरे में धकेला गया है, जो कि घृणा से भरकर जहरीले हो गए हैं। किसी बुराई को मात देने का यह कोई उपाय नहीं है। जनता को ठहरकर सोचना चाहिए कि उसके साथ क्या हो रहा है। कट्टर प्रचार के प्रभाव में वे उन महान नेताओं को अंधाधुंध गाली दे रहे हैं, जिन्होंने उन्हें निराशा के दलदल से निकालकर स्वतंत्रता की बुलंदियों पर पहुंचाया। यदि उन्होंने आज उन लोगों पर ध्यान नहीं दिया, तो वे ढलान से फिसलकर अंधेरे रसातल में चले जाएंगे।'
अपने साथी भारतीयों के लिए मीरा की यह अपील 1947 के आखिरी हफ्तों में प्रकाशित हुई थी। पचहत्तर साल बाद मैं जब यह आलेख लिख रहा हूं, उनकी यह अपील आज हम जिस देश में रहे हैं, वहां भी प्रासंगिक है। उनके बयान के ये शब्द, 'सत्य के वचन को उन्हीं लोगों ने अपने पैरों तले कुचला है, जो खुद को हिंदू कहते हैं', भाजपा की आईटी सेल की गतिविधियों पर अक्षरशः लागू होते हैं। काल्पनिक हिंदुत्व राष्ट्र का उनका वर्णन, 'स्वयंभू, और खुद को श्रेष्ठ बताने वाली एक नस्ल से आबाद, जिसकी आध्यात्मिक असहिष्णुता सच्चे हिंदू धर्म का नकार होगी', आज भारत में सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा को पूरी तरह से प्रतिबिंबित करता है।
क्या हिंदू मन फिर से अपना संतुलन हासिल कर सकता है, अपने धार्मिक और राजनीतिक वर्चस्व में विश्वास छोड़ सकता है, और वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी आदर्शों को अपना सकता है? 1947-48 में ऐसा कर पाने में वह दो कारणों से सफल हुआ; पहला गांधी के एक उपवास से, जिसमें 78 साल के बूढ़े शख्स ने सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने के लिए असाधारण नैतिक और शारीरिक साहस दिखाकर दिल्ली के नागरिकों को शर्मिंदा किया था; और दूसरा है, गांधी की हत्या, जिसने हर जगह हिंदुओं को शर्मिंदा किया और वे आरएसएस तथा महासभा से कन्नी काटने लगे।
आम हिंदुओं को शर्मिंदा करने के अलावा गांधी की हत्या का एक महत्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा कि उसने जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल को एक साथ ला दिया। स्वतंत्रता मिलने के बाद के कुछ महीनों में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बीच संबंध मधुर नहीं रहे थे; हालांकि, अपने गुरु की हत्या के बाद, उन्होंने अपने मतभेदों को दफना दिया। भाजपा के प्रचारक कितनी भी कोशिश कर लें, वे इस ऐतिहासिक सच्चाई को मिटा नहीं सकते कि 1948 से 1950 के उन महत्वपूर्ण वर्षों में नेहरू और पटेल प्रतिद्वंद्वी नहीं, साथी थे।
गांधी के उपवास, गांधी की हत्या, और नेहरू और पटेल के एक साथ आने, इन सभी ने भारतीय स्वतंत्रता के उन पहले, भयावह वर्षों में हिंदुत्व की ताकतों को परास्त करने में अपनी भूमिका निभाई। क्या उस अतीत से हमारे विवादास्पद वर्तमान के लिए कोई सबक है?
सौजन्य - अमर उजाला।
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