अरुण कुमार, अर्थशास्त्री
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के मुताबिक, कोरोना महामारी की वजह से मौजूदा वित्तीय वर्ष में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7.7 फीसदी तक की गिरावट हो सकती है। यह गिरावट पहले के अनुमान से कहीं ज्यादा है। पिछले वित्तीय वर्ष में विकास दर 4.2 प्रतिशत थी। वैसे तो, पहले भी जीडीपी दर ऊपर-नीचे होती रही है, लेकिन आजादी के बाद यह पहला मौका होगा, जब इसमें इतनी बड़ी गिरावट दर्ज की जाएगी। आखिर ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, कोविड-19 के कारण इस वर्ष अप्रत्याशित हालात बन गए। लॉकडाउन लगाकर हमने अपनी आर्थिक गतिविधियां खुद बंद कर दीं। युद्ध के समय भी ऐसा नहीं होता। वैसी स्थिति में संघर्ष के बावजूद मांग की स्थिति बनी रहती है, जिसके कारण उत्पादन का ढांचा बदल जाता है और अर्थव्यवस्था चलती रहती है। जैसे, दूसरे विश्व युद्ध के समय जर्मनी में चॉकलेट बनाने वाली एक कंपनी ने हवाई जहाज के कल-पुर्जे बनाने शुरू कर दिए। मगर कोरोना संक्रमण-काल में मांग और आपूर्ति, दोनों ठप हो गई।
अपने यहां जब कभी भी गिरावट आई, तब उसकी वजहें तात्कालिक रहीं। मसलन, सन 1979 से पहले अर्थव्यवस्था में सिकुड़न सूखे के कारण होता था। चूंकि उस दौर में उत्पादन का प्रमुख आधार कृषि था, इसलिए साल 1951, 1965, 1966, 1971, 1972 और 1979 में पर्याप्त बारिश न होने से विकास दर प्रभावित हुई। कृषि-उत्पादन बढ़ते ही अर्थव्यवस्था अपनी गति पा लेती थी। सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं होती थी। साल 1967-68 में यह भी पाया गया कि देश में जब सूखा आता है, तो कपड़ेकी मांग कम हो जाती है। असल में, सूखा पड़ जाने से लोगों की क्रय-क्षमता कम हो जाती थी और वे नए कपड़े खरीदने से बचने लगते थे। चूंकि कृषि के बाद कपड़ा उद्योग दूसरा सबसे बड़ा सेक्टर था, इसलिए वहां मांग कम होने का असर हमारी पूरी अर्थव्यवस्था पर दिखता।
मगर 1979-80 के बाद अर्थव्यवस्था पर सर्विस सेक्टर हावी होता गया, जिसके कारण सूखे के बावजूद अर्थव्यवस्था बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुई। जैसे, साल 1987 के सूखे के बाद भी विकास दर धनात्मक रही। अब अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी घटकर 13 प्रतिशत के करीब रह गई है, जबकि सर्विस सेक्टर की भागीदारी बढ़कर 55 प्रतिशत हो गई है। इस कारण यदि कृषि में 20 फीसदी तक की गिरावट (जो काफी ज्यादा मानी जाएगी) भी आती है, तो अर्थव्यवस्था को सिर्फ 2.6 प्रतिशत का नुकसान होगा, जबकि सर्विस सेक्टर आठ प्रतिशत की दर से भी बढ़ता रहा, तो वृद्धि दर में उसका पांच फीसदी का योगदान रहेगा।
विगत वर्षों में जब कभी संकट आया, तो सरकार को खास पहल करनी पड़ी। साल 2007-08 की वैश्विक मंदी का ही उदाहरण लें। इसमें सरकार ने मांग बढ़ाने का काम किया, जिसके कारण विकास दर काबू में रही। उस समय न सिर्फ किसानों के कर्ज माफ किए गए, बल्कि मध्याह्न भोजन, ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं का बजट बढ़ाकर दो-तीन लाख करोड़ रुपये ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचाए गए। इससे देश का राजकोषीय घाटा जरूर बढ़ गया, लेकिन लोगों के हाथों में पैसे आने से बाजार में मांग पैदा हो गई।
ग्रामीण क्षेत्रों में पैसे भेजने से स्थानीय अर्थव्यवस्था को खूब लाभ मिलता है। इसके बरअक्स, शहरी लोग रुपये की आमद होने पर विलासिता की चीजें अधिक खरीदते हैं। चूंकि विलासिता के ज्यादातर उत्पाद विदेश से आयात होते हैं, इसलिए इन पर खर्च किया जाने वाला काफी पैसा संबंधित निर्यातक देश के खाते में चला जाता है, जबकि ग्रामीण बाजार में विलासिता की चीजें तुलनात्मक रूप से कम खरीदी जाती हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था में पैसों की आमद बढ़ जाती है।
आंकड़ों में इस साल कृषि क्षेत्र में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। मगर पहली तिमाही में इस क्षेत्र में जबर्दस्त गिरावट आई है, क्योंकि मंडी में फल-सब्जी जैसे उत्पाद काफी कम मात्रा में पहुंचे। दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था कुछ संभली जरूर, लेकिन पटरी पर नहीं लौट सकी। तीसरी-चौथी तिमाही की भी बहुत अच्छी तस्वीर नहीं दिख रही। यानी, जो आकलन किया गया है, उससे भी ज्यादा की गिरावट आ सकती है। जैसे कि सर्विस सेक्टर में रेस्तरां, होटल, परिवहन आदि की सेहत अब भी डांवांडोल ही है। इस संकट का समाधान क्या है? सार्वजनिक खर्च बढ़ाने का दांव खेला जा सकता है, पर हमारा राजकोषीय घाटा पहले से ही बढ़ा हुआ है। कोविड-19 से पहले केंद्र, राज्य और सार्वजनिक इकाइयों का संयुक्त घाटा करीब 10 फीसदी था। पिछले साल की आखिरी तिमाही में वृद्धि दर 3.5 प्रतिशत थी, जबकि इससे दो साल पूर्व की तिमाही में आठ फीसदी। पहले से बिगड़ रही आर्थिक सेहत को कोरोना महामारी ने आईसीयू में पहुंचा दिया है। मांग और आपूर्ति खत्म हो जाने के कारण नए तरीके से इस संकट से हमें लड़ना होगा। इसलिए सार्वजनिक खर्च बढ़ाना एकमात्र उपाय नहीं हो सकता, क्योंकि राजकोषीय घाटा अभी 20 फीसदी से भी अधिक है। बीते साल 22 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज का भी एलान किया गया। मगर इसका सिर्फ 15 फीसदी हिस्सा बजट के रूप में आवंटित किया गया, शेष 85 फीसदी राशि बतौर कर्ज बांटने की बात कही गई। चूंकि कर्ज लेने के लिए लोग तैयार नहीं थे, इसलिए यह राशि उनकी क्रय-क्षमता नहीं बढ़ा सकी। बेहतर तो यह होता कि सरकार ग्रामीण योजनाओं के बजट बढ़ाती, ताकि लोगों के हाथों में सीधे पैसे पहुंचे। वैसे भी, संगठित क्षेत्र की कंपनियां खुद को संभाल सकती हैं, क्योंकि उनके पास पूंजी भी होती है और बैंक के दरवाजे भी उनके लिए खुले रहते हैं, जबकि अपने देश में असंगठित क्षेत्र की तकरीबन छह करोड़ छोटी-मोटी इकाइयां हैं, जो बहुत छोटे, लघु और मध्यम उद्योग के 99 फीसदी रोजगार बांटती हैं। परेशानी इन्हीं क्षेत्रों को है। यहीं से लोगों का पलायन हुआ है। जाहिर है, ग्रामीण रोजगार योजनाओं का विस्तार जरूरी है। 100 दिनों के बजाय जरूरतमंदों को 200 दिनों का रोजगार दिया जाना चाहिए। इस समय जरूरत एक शहरी रोजगार योजना की भी है। अर्थव्यवस्था तभी संभलेगी, जब मांग बढे़गी। और, इसके लिए लोगों के हाथों में पैसे देने चाहिए। रही बात सर्विस सेक्टर की, तो टीकाकरण अभियान का जैसे-जैसे विस्तार होगा, यह क्षेत्र भी अपनी पुरानी लय पा लेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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