अतनु विश्वास
कोरोनावायरस का एक नया प्रकार सामने आने के बाद ब्र्रिटेन में कोविड-19 संक्रमण के मामलों में इजाफा देखने को मिल रहा है। ऐसे में यह अहम सवाल उठता है कि क्या जो टीके लोगों को लगाए जा रहे हैं या जो लगाए जाने वाले हैं वे इस बदले स्वरूप वाले वायरस के खिलाफ भी कारगर हैं? पुराने वायरस से तुलना की जाए तो वायरस के नए प्रकार से संक्रमण का खतरा 70 प्रतिशत तक अधिक है। यही कारण है कि कई देशों ने ब्रिटेन से आने वाली उड़ानों पर रोक लगा दी है। हालांकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है जिससे यह साबित हो कि इस नई किस्म के वायरस पर टीके का असर कम होगा। जब तक इस विषय पर और अधिक आंकड़े सामने नहीं आ जाते तब तक चिंता बनी रहेगी।
निश्चित रूप से भविष्य में अधिक संक्रामक स्वरूप सामने आ सकता है और वह टीकों की क्षमता को प्रभावित करेगा। टीके के विकास में प्राय: कई वर्ष का समय लगता है बल्कि कई बार तो दशकों का भी। फिलहाल तो महामारी के आगमन के एक वर्ष के भीतर ही कई टीके तैयार हो गए हैं। महामारी ने औषधि उद्योग को यह दुर्लभ अवसर प्रदान किया कि वह अरबों डॉलर के वैश्विक टीका बाजार की संभावनाओं में हिस्सेदारी करे और इस क्षेत्र ने वास्तव में परिस्थिति का पूरा लाभ लेने का प्रयास किया। क्या वाकई ये टीके दुनिया में हालात सामान्य करने की दिशा में जादुई प्रभाव वाले साबित हो सकते हैं? लंबी अवधि के दौरान इन टीकों की सुरक्षा और इनके प्रभाव को लेकर सवाल बरकरार हैं।
कोविड-19 टीके की तलाश शुरू होने के बाद से ही सुरक्षा को लेकर बार-बार चिंता जताई जाती रही है। मार्च में 'नेचर' पत्रिका ने एक आलेख प्रकाशित किया जिसके शीर्षक में कहा गया था कि बिना पर्याप्त सुरक्षा गारंटी के कोविड-19 के टीकों और दवाओं के लिए होड़ नहीं करें। इसके बावजूद दुनिया भर में इसे लेकर अप्रत्याशित होड़ देखने को मिली। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया भर में हालात सामान्य करने की हड़बड़ी के चलते एक प्रभावी टीका जल्दी तैयार किया जाना भी आवश्यक था। औषधि उद्योग ने इस दिशा में अपनी ओर से बेहतरीन प्रयास किया। परंतु टीकों के सुरक्षित और प्रभावी होने के मामले में उतनी जांच परख नहीं हो सकी क्योंकि टीका जल्द से जल्द तैयार करना था। यही कारण है कि किसी को नहीं पता कि लंबी अवधि में टीका कैसा व्यवहार करेगा।
आमतौर पर टीकों को तीन चरण के चिकित्सकीय परीक्षण के बाद मंजूरी दी जाती है। परीक्षणों के जरिये अल्पावधि में उनकी सुरक्षा, प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने की काबिलियत और उनके प्रभाव का आकलन किया जाता है। हालांकि ज्यादातर बुरे परिणाम टीका लगने के तुरंत बाद सामने आ जाते हैं लेकिन सुरक्षा के मसले और संभावित दुष्परिणामों का आकलन लंबी अवधि में किया जाना चाहिए। खासतौर पर तब जबकि टीके अस्वाभाविक रूप से जल्दबाजी में तैयार किए गए हों।
कोविड-19 के अधिकांश टीकों का प्रभाव 70 से 95 फीसदी के बीच आंका गया है। अगर किसी टीके का प्रभाव 80 फीसदी आंका गया है तो इसका अर्थ यह है कि इसे इस्तेमाल करने वालों में जोखिम का अनुपात 20 फीसदी होगा। परीक्षण स्तर पर तो अधिकांश टीकों को लेकर कोई जोखिम सामने नहीं आया है। यह बेहतर प्रतीत होता है। क्या यह माना जा सकता है कि ऐसे टीके लंबी अवधि में भी सुरक्षित और प्रभावी हैं?
फिलहाल इस बारे में कोई नहीं जानता। टीका विकसित करने की जबरदस्त होड़ है और उसकी मांग इतनी ज्यादा है कि बिना सुरक्षा की पर्याप्त जानकारी के ही टीकों की घोषणा कर दी गई। स्वाभाविक है कि इतनी जल्दी टीका विकसित करने के दबाव के बाद टीका निर्माता सरकारों से मांग कर रहे हैं कि उन्हें कानूनी विवाद की स्थिति में सुरक्षा मुहैया कराई जाए। कई देशों में उन्हें ऐसा संरक्षण दिया भी जाएगा।
भारत में टीकाकरण इसी महीने आरंभ हो सकता है और कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अगले वर्ष सितंबर-अक्टूबर तक हालात सामान्य हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ तो बहुत अच्छी बात है। हालांकि अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि टीका बीमारी को कितने समय तक रोक पाएगा। क्या हमें फ्लू की तरह समय-समय पर टीका लगवाते रहना होगा? यदि ऐसा होता है तो कितने अंतराल पर टीका लगवाना होगा? दीर्घकालिक सुरक्षा का निरंतर आकलन और टीकाकरण से उत्पन्न ऐंटीबॉडी के समाप्त होने की अवधि का अनुमान लगाना जरूरी है। ऐसे में एक ही आबादी में सुरक्षा और प्रभाव अलग-अलग हो सकते हैं। अभी तमाम सवालों के जवाब तलाशने हैं। कई लोगों को अपने स्वास्थ्य, उम्र, चिकित्सा इतिहास आदि को ध्यान में रखते हुए टीकाकरण करवाने का निर्णय करना होगा क्योंकि शुरुआती दौर में व्यापक दिशानिर्देश मिलना मुश्किल है। यह समस्या दुनिया भर में रहेगी। हालांकि महामारी के दौरान तेजी से टीके का विकास करना एक अनिवार्यता थी लेकिन हमें टीकाकरण कराने वालों का विशेष ध्यान रखना होगा। यह कतई आसान नहीं है।
पर्याप्त कोल्ड चेन प्वाइंट समेत जरूरी बुनियादी ढांचा तैयार करना और टीकाकरण की लागत आदि वे अहम कारक हैं जिन पर विचार करते हुए ही सामूहिक टीकाकरण की दिशा में आगे बढऩा होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि देश में सभी इच्छुक लोगों का टीकाकरण करने में 2024 तक का समय लग सकता है। कई लोगों का मानना है कि टीके से मिलने वाली प्रतिरक्षा कुछ महीने से ज्यादा नहीं चलेगी। यदि ऐसा होता है तो क्या हमें 2024 के पहले ही कई बार टीका लगवाना होगा?
कई लोगों का मानना है कि यदि एक साथ ढेर सारे लोगों में प्रतिरक्षा क्षमता विकसित हो तो इस बीमारी के प्रसार को रोका जा सकता है। ऐसे में उदाहरण के लिए यदि टीका छह महीने के लिए कारगर रहता है तो छह महीने मे 15-20 फीसदी से अधिक आबादी को टीके लगाना व्यावहारिक नहीं होगा। वैसी स्थिति में दो तिहाई आबादी को एक साथ प्रतिरक्षा मुहैया कराके सामूहिक प्रतिरक्षा तैयार करना आसान नहीं होगा। आने वाले कई महीनों तक या शायद एक साल तक ऐसे सवाल सर उठाते रहेंगे। इस बीच हमें बेहतरी की उम्मीद करनी होगी।
(लेखक भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, कोलकाता में सांख्यिकी के प्राध्यापक हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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