दुनिया में सबसे पुराना लोकतंत्र होने का दंभ भरते हुए पूरी दुनिया को लोकतांत्रिक नसीहतें देने वाले अमेरिका में बुधवार को जो कुछ घटा, उसने इस देश के लोकतंत्र की साख को धूमिल ही किया। अमेरिकी लोकतंत्र में नाटकीय राजनीति के प्रतीक राष्ट्रपति ट्रंप ने हठधर्मिता दिखाकर अपने समर्थकों को चुनाव परिणामों को लेकर जैसा भ्रमित किया, उसकी परिणति कैपिटल हिल पर हमले के रूप में हुई। वह भी उस वक्त जब अमेरिकी संसद जो बाइडन व कमला हैरिस के राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुने जाने पर मोहर लगा रही थी।  भले ही अमेरिकी लोग इस घटनाक्रम को तीसरी दुनिया की अराजक लोकतांत्रिक गतिविधियों की पुनरावृत्ति बता रहे हैं लेकिन यह घटनाक्रम अमेरिकी समाज में गहरे होते विभाजन को दर्शाता है। अब चाहे संसद की कार्यवाही वाले दिन ट्रंप द्वारा अपने समर्थकों की रैली बुलाने और उन्हें उकसाने के आरोप लग रहे हों, लेकिन हकीकत में यह घटनाक्रम गहरे तक विभाजित अमेरिकी समाज की हकीकत को बताता है। राष्ट्रपति चुनाव से पहले पुलिस की निर्ममता के विरोध में उपजे अश्वेत आंदोलन की हिंसा ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा और बताया कि अमेरिकी लोकतंत्र में सब कुछ ठीकठाक नहीं है। वहीं बुधवार को हुई घटना को श्वेत अस्मिता के प्रतीक बताये जाने वाले ट्रंप की पराजय को न पचा पाने की परिणति ही कहा जा रहा है। अमेरिकी संसद की सुरक्षा में सेना के बजाय पुलिस को लगाया जाना,  फिर पुलिस का सुरक्षा घेरा टूटना तथा हमलावरों के प्रति उदार व्यवहार किये जाने को लेकर अमेरिका में बहस छिड़ी है। कहा जा रहा है कि यदि अश्वेत ऐसा करते तो क्या सुरक्षा बलों की ऐसी ही सीमित प्रतिक्रिया होती? अमेरिकी समाज में पिछले चार साल में जो सामाजिक विभाजन गहराया है, उसकी आक्रामक अभिव्यक्ति को कैपिटल हिल पर हुए हमले के रूप में देखा गया है।

बहरहाल, बुधवार के घटनाक्रम के बावजूद भले ही डोनाल्ड ट्रंप ने अनौपचारिक रूप से अपनी पराजय स्वीकार करते हुए सत्ता हस्तांतरण के लिये सहमति जता दी हो, लेकिन तब तक दुनियाभर में अमेरिकी लोकतंत्र की छीछालेदर हो चुकी थी। जिस लोकतंत्र की दुहाई देकर अमेरिका दुनियाभर के लोकतंत्रों को नसीहतें देता रहा, उसका तिलिस्म अब दरक चुका है। अब अमेरिका में दलीलें दी जा रही हैं कि यहां जो कुछ घटा, वह तीसरी दुनिया के लोकतंत्रों के समानांतर ही है। यानी विकासशील देशों में जहां चुनाव से पहले जीत के दावे किये जाते रहे हैं और हार के बाद सत्ता छोड़ने में ना-नकुर की जाती रही है। जहां संवैधानिक संस्थाओं को नकार कर सत्ता हासिल करने का उपक्रम चलता रहता है। ऐसा करके लोकतंत्र का दंभ भरने वाले अमेरिकी भूल जाते हैं कि पिछले चार साल में लोकतांत्रिक व जीवन मूल्यों की रक्षा के लिये स्थापित संस्थाओं से ट्रंप लगातार  खिलवाड़ करते रहे। उन्होंने अपने समर्थकों के मन में कल्पित तथ्यों के बूते यह बात बैठाने में सफलता पायी कि चुनाव में धांधली हुई है। जबकि हकीकत में इस बात का कोई प्रमाण अब तक वे दे नहीं पाये हैं। सही मायनो में अमेरिकी समाज में विभाजन का सच पूरी दुनिया के सामने अनावृत्त हुआ है। अब भले ही भारी-भरकम शब्दों के जरिये उसे छिपाने का असफल प्रयास किया जा रहा हो। निश्चित रूप से सत्ता हस्तांतरण से पहले हुआ उपद्रव अमेरिकी लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है जो दुनिया में सुनी जाने वाली अमेरिकी आवाज को कमजोर बनायेगा। सवाल अमेरिकी समाज पर भी उठेगा कि कैसे उसने प्रॉपर्टी के कारोबारी अरबपति को अमेरिकी लोकतंत्र की बागडोर श्वेत अस्मिता को बरकरार रखने के लिये सौंपी। निस्संदेह मंदी और कोरोना संकट की विभीषिका से जूझ रहे अमेरिका के आत्मबल को इस घटनाक्रम से गहरी ठेस पहुंचेगी, जिससे उबरने में उसे लंबा वक्त लगेगा। आने वाला समय नये राष्ट्रपति जो बाइडेन के लिये खासा चुनौती भरा होने वाला है। उनके सत्ता हस्तांतरण का रास्ता तो साफ हो गया है मगर विभाजित अमेरिकी समाज को एकजुट करना और कोरोना संकट से उबरकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना आसान नहीं होगा। 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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