निस्संदेह किसी सभ्य समाज में किसी भी किस्म के नस्लवाद का का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। खासकर खेल की दुनिया में तो कतई नहीं, जो मनुष्य के उदात्त जीवन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। आज 21वीं सदी में किसी समाज के लिये ऐसी सोच का होना शर्मनाक है। पिछले दिनों सिडनी में भारत व आस्ट्रेलिया के बीच तीसरे टेस्ट मैच के दौरान जो कुछ भी अप्रिय घटा, वह बताने वाला था कि खुद को सभ्य बताने वाले विकसित देशों के कुछ लोग आज भी मानसिक दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाये हैं। निस्संदेह दर्शक दीर्घा में अच्छे खेल को प्रोत्साहन देने वाले क्रिकेट प्रशंसक भी होंगे लेकिन कुछ बिगड़ैलों ने जिस तरह से भारतीय खिलाड़ियों को लेकर नस्लवादी टिप्पणियां कीं, वह दुखद ही कही जायेंगी। कहीं न कहीं ऐसे लोग विपक्षी टीम का मनोबल गिराने का कुत्सित प्रयास ही करते हैं ताकि खिलाड़ियों की मानसिक एकाग्रता भंग करके अपनी टीम को बढ़त दिलायी जा सके। ऐसी अभद्रता कई खिलाड़ियों को फिल्डिंग के दौरान सहनी पड़ी। नस्लभेदी टिप्पणी करने वाले अपनी टीम के प्रति इतनी उम्मीदें पाले होते हैं कि हर मैच में अपनी टीम को जीतता देखना चाहते हैं जो कि किसी भी खेल में संभव नहीं है। यही मानसिक ग्रंथि उन्हें विपक्षी टीम के खिलाफ अनाप-शनाप बकने को उकसाती है। विडंबना यह है कि इन असामाजिक तत्वों ने दूसरा मैच खेल रहे मोहम्मद सिराज और जसप्रीत बुमराह को निशाना बनाया, जो आस्ट्रेलिया टीम को चुनौती दे रहे थे। कहीं न कहीं ऐसी कुत्सित कोशिशें विपक्षी टीम की जीत की कोशिशों की लय को भंग करने के ही मकसद से की जाती हैं। हालांकि खिलाड़ियों द्वारा टीम कप्तान को विकट स्थिति की जानकारी देने और मैच अधिकारियों द्वारा कार्रवाई के बाद बदतमीज दर्शकों को स्टेडियम से बाहर का रास्ता दिखाया गया, लेकिन ऐसी कड़वाहट इतनी जल्दी कहां दूर होती है। उसकी कसक लंबे समय तक बनी रहती है।
हालांकि, क्रिकेट आस्ट्रेलिया ने इस घटनाक्रम पर खेद जताया है। यह अच्छी बात है कि ऐसी कुत्सित मानसिकता को संस्थागत संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। मामले की पड़ताल की जा रही है। विगत में खिलाड़ी, आप्रवासी भारतीय व अल्पकालिक प्रवास पर गये लोग शिकायत करते रहे हैं कि कुछ आस्ट्रेलियाई नस्लवादी व्यवहार करते हैं। हालांकि, आस्ट्रेलिया में ऐसे अपशब्दों को प्रतिबंधित किया गया है और आस्ट्रेलिया एक बहुसांस्कृतिक देश के रूप में देखा जाता रहा है। श्वेत आस्ट्रेलिया की नीति को 1970 के दशक में अलविदा कह दिया गया था। पिछले दशकों में बड़ी संख्या में अश्वेत बड़े शहरों का हिस्सा बने हैं। लेकिन इसके बावजूद एक तबका इसे स्वीकृति प्रदान और सभी लोगों को अपने समाज में आत्मसात् नहीं कर पा रहा है। खासकर जब खेल की बात आती है तो वे आक्रामक राष्ट्रवादी बन जाते हैं। खेल अधिकारियों ने दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई करके सकारात्मक संदेश ही दिया है। लेकिन इसके बावजूद कई सवाल अनुत्तरित ही हैं कि सभ्यता के विकास क्रम में ऐसी संकीर्ण सोच के लोग क्यों नस्लवाद का पोषण करते हैं। अवांछित पूर्वाग्रहों से ग्रस्त ऐसे लोग सामुदायिक पहचान के जरिये अपने अतीत के वर्चस्व से आत्ममुग्ध रहते हैं। यह ठीक है कि विकसित समाजों ने ऐसी धारणा को दूर करने में खासी कामयाबी पायी है। लेकिन इसके बावजूद नस्लभेदी पूर्वाग्रहों का विद्यमान रहना हैरानी का ही विषय है। ऐसी दुर्भावना का पाया जाना किसी भी सभ्य समाज के लिये शर्म की बात है। खासकर दूसरे देश से खेल जैसे उत्कृष्ट मानवीय व्यवहार का हिस्सा बनने वाले खिलाड़ियों के साथ ऐसा व्यवहार किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं हो सकता। संस्थागत स्तर पर तो ऐसी सोच को पनपने का किसी भी हाल में मौका नहीं देना चाहिए। ऐसी सोच को दूर करने के लिये सकारात्मक सामाजिक प्रशिक्षण दिये जाने की भी जरूरत है ताकि उनमें आलोचनात्मक विवेक पैदा किया जा सके। तभी वे सभ्य होने की कसौटी पर खरे उतर सकेंगे। मानव के भीतर मानव के लिये संवेदना जगाना जरूरी है।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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