अजित बालकृष्णन
देशव्यापी लॉकडाउन लागू होने से ठीक पहले की बात है, हम कॉलेज के दिनों के कुछ मित्रों के साथ घर पर थे। हम सभी साथ में खाते-पीते हुए गर्मजोशी और खुशमिजाजी के साथ ऐसी कहानियां साझा कर रहे थे जो केवल पुरानी दोस्तियां ही तैयार कर सकती हैं। तभी दरवाजे की घंटी बजी और दरवाजे पर दो और मित्र नजर आए जो महिलाएं थीं। मैंने चकित होकर कहा, 'आखिरकार हमारे ब्यूरोक्रेट (अफसरशाह) दोस्त भी आ गए!' इतना कहने की देर थी कि दोनों महिलाओं के चेहरे पर मौजूद गर्माहट भरी मुस्कान अचानक ठंडी पड़ गई!
उनमें से एक ने बुदबुदाते हुए कहा, 'ये आईएएस लोग हमारा नाम खराब करते हैं।' मैं वहां जड़वत खड़ा रहा और दोनों मित्र मेरे बाजू से निकल कर मित्रों के समूह में शामिल हो गईं। मैं सोच रहा था कि मैंने आखिर क्या गलत कह दिया। मैने जिन दो मित्रों का कथित अपमान किया था उनमें से एक हाल ही में एक बड़े राज्य के पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुई थीं और दूसरी एक प्रमुख यूरोपीय देश की राजदूत रह चुकी थीं। क्या कॉलेज के दिनों के मित्रों और उनकी पत्नियों के समूह में किसी को 'अफसरशाह' कह देना इतना अपमानजनक था? बहरहाल, उसके बाद शाम पहले की तरह खुशमिजाज हो गई और मैं एक कोने में पड़ा यह सोचता रहा कि आखिर भूतपूर्व आईपीएस और आईएफएस अधिकारियों को मेरा मजाक में 'अफसरशाह' कहकर पुकारना इतना नागवार क्यों गुजरा? मैंने अपनी किस्मत को सराहा कि मैंने मजाक में उन्हें 'बाबू' कहकर उनका स्वागत नहीं कर दिया!
मैंने याद किया कि 'अफसरशाही' यानी 'ब्यूरोक्रेसी' शब्द यूरोप में दो शब्दों फ्रांसीसी भाषा के 'ब्यूरो' यानी डेस्क या ऑफिस और ग्रीक भाषा के 'क्राटोस' यानी 'शासन' से बना है। यानी अफसरशाह एक ऐसा व्यक्ति था जिसे अपने कार्यालय में बैठे-बैठे दूसरों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त था।
मुझे अपने आईआईएम अध्ययन के दिनों की संगठनात्मक व्यवहार के पाठ्यक्रम की बात भी याद थी जिसमें मुझे पढ़ाया गया था कि सन 1920 के दशक में जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने कहा था कि एक ऐसी अफसरशाही संगठन का सबसे सक्षम स्वरूप है जहां श्रम का उचित विभाजन हो, एक पदसोपानिक ढांचा हो, जहां सभी निर्णय नियमों के आधार पर हों और जिसके सदस्यों का चयन नियुक्ति के माध्यम से होता हो, न कि चुनाव के माध्यम से। दूसरे शब्दों में अफसरशाही का अर्थ था सक्षमता और आधुनिकता। एक मध्यवर्गीय भारतीय परिवार से आने के नाते मुझे याद है कि लोग अपने बच्चों को आईआईएम (जैसे कि मैं) या भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय विदेश सेवा अथवा भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए प्रेरित करते थे। अक्सर बच्चों के करियर का निर्णय हाई स्कूल के स्तर पर ही करने का प्रयास किया जाता था और उन्हें इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज या लॉ कॉलेज जाने को कहा जाता। उस समय ये तमाम पेशे काफी प्रतिष्ठित माने जाते थे और अतीत को याद करके मैं यही कह सकता हूं कि उस वक्त कोई व्यक्ति इनमें से किस पेशे का चयन करता था यह काफी हद तक तकदीर पर भी निर्भर करता था।
ऐसे में आखिर क्या वजह रही कि हमारे समाज में आईएएस अधिकारियों को अफसरशाह कहा गया और इतना ही नहीं यह शब्द भी अपमानजनक माना जाने लगा? सरदार वल्लभ भाई पटेल के उस सपने का क्या हुआ जो उन्होंने 1947 में देखा था और कहा था कि आईएएस देश के लिए इस्पात का ढांचा साबित होंगे। यह ऐसी सेवा होगी जिसमें शामिल युवक-युवतियां निष्पक्ष और ईमानदार होंगे और वे बिना किसी पुरस्कार की इच्छा के देश की सेवा करेंगे। उनका मानना था कि यह वर्ग शासकों के बजाय जनता का सेवक होगा।
कोलंबिया विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री अरविंद पानगडिय़ा जो नीति आयोग के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं, ने अपनी हालिया पुस्तक, इंडिया अनलिमिटेड: रीक्लेमिंग द पास्ट ग्लोरी में कुछ बातें कही हैं। उनका मानना है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सुधार संबंधी जो पहल कीं उनमें से कई की राह अफसरशाहों ने रोक दी। वह उदाहरण देते हैं कि सन 2016 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने नीति आयोग से कहा कि वह निजीकरण के लिए सरकारी उपक्रमों की पहचान करे। पानगडिय़ा कहते हैं कि सूची बनाकर प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई, उसे मंत्रिमंडल की मंजूरी भी मिली लेकिन जब इसे निवेश एवं सार्वजनिक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग को भेजा गया तो यह वहां अटक गई। उन्होंने पुस्तक में यह भी बताया है कि कैसे अफसरशाह प्रधानमंत्री मोदी के कदमों तक में अड़ंगा डालने के तरीके तलाश लेते हैं। पानगडिय़ा कहते हैं कि एक समझदार अफसरशाह कभी ना नहीं कहता। वह बस ऐसे संकेत देता है कि काम प्रगति पर है और इसके साथ ही काम को तब तक धीमा किए रहता है और इस दौरान या तो वह सेवानिवृत्त हो जाता है या फिर सरकार बदल जाती है।
व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए इन आईएएस विरोधी प्रमाणों पर यकीन करना मुश्किल है। आईआईएम-कलकत्ता के संचालक मंडल के चेयरमैन के रूप में बिताए गए 10 वर्षों के दौरान मानव संसाधन विकास मंत्रालय (शिक्षा मंत्रालय का तत्कालीन नाम) के सचिव स्तर के अधिकारियों से मेरा नियमित संपर्क और संवाद हुआ करता था। मुझे ऐसी एक भी घटना याद नहीं आती जब किसी सचिव ने उच्चतम स्तर का पेशेवर व्यवहार न किया हो। कभी किसी सचिव ने कॉमन एडमिशन टेस्ट (कैट) को प्रभावित करने का कोई प्रयास नहीं किया। न ही कभी किसी शिक्षक की नियुक्ति या पदोन्नति को लेकर ऐसा कुछ देखने को मिला। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिवों/आईएएस अधिकारियों के साथ संवाद के दौरान भी मुझे कभी ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ। उनसे मेरा संपर्क तब था जब मैं सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम को उन्नत बनाने वाली समिति तथा आईआईटी और आईआईआईटी में शोध परियोजनाओं को सरकारी धन मंजूर करने वाली समितियों में शामिल था।
परंतु मुझे एक चिंतित करने वाला रुझान नजर आता है: आईआईएम कलकत्ता में 10 वर्ष के दो कार्यकालों के दौरान मैंने देखा कि शिक्षा मंत्रालय में नौ लोग सचिव बने जबकि सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय में मुझे पांच सचिव देखने को मिले। स्पष्ट है कि इतना छोटा कार्यकाल होने के कारण इन सचिवों के लिए शिक्षा और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे जटिल क्षेत्र में काम करना मुश्किल हो जाता है। यदि हमें अखिल भारतीय सेवा में आने वाले इन प्रतिभाशाली लोगों की क्षमताओं का सही इस्तेमाल करना है तो शायद इनके कार्यकाल पर ध्यान देना होगा।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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