आदिति फडणीस
देश में दो राजनीतिक दल ऐसे हैं जो अपने आप विकसित हो रहे हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने किसी दल को तोडऩे या दलबदल का सहारा नहीं लिया है। भले ही इन्हें कोई व्यापक सफलता न मिले लेकिन उनकी क्षेत्रीय पहचान निरंतर मजबूत हो रही है। इनमें एक दल है शिवसेना जिसने महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बेदखल करने के बाद राज्य पर अपनी पकड़ मजबूत की जबकि दूसरा है ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) जिसे अभी हाल तक हैदराबाद का दल माना जाता था।
दो हालिया विधानसभा चुनावों पर नजर डालते हैं जहां एआईएमआईएम ने गंभीरता से शिरकत की। महाराष्ट्र में 2019 में हुए विधानसभा चुनावों में कुछ इलाकों में उसके मत प्रतिशत में नाटकीय इजाफा हुआ। धुले शहर और मालेगावं सेंट्रल में एआईएमआईएम का मत प्रतिशत पिछले चुनाव की तुलना में 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ा। मालेगांव सेंट्रल में 2014 में पार्टी को 12.5 फीसदी मत मिले थे जबकि 2019 में उसे वहां 58 फीसदी से अधिक मत हासिल हुए। इसी प्रकार धुले शहर में 2014 में पार्टी 2.4 प्रतिशत मतों के साथ अपनी जमानत तक नहीं बचा सकी थी। लेकिन 2019 में वह 28 फीसदी मतों के साथ चुनाव जीतने में कामयाब रही।
पार्टी ने 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी आश्चर्यजनक सफलता को दोहराया। यहां नतीजे और भी नाटकीय रहे। आमोर विधानसभा में उसका मत प्रतिशत 2015 के 1.1 फीसदी से बढ़कर 2020 में 51.1 फीसदी हो गया। कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र में उसकी मत हिस्सेदारी 26.1 फीसदी से बढ़कर 49.25 फीसदी हो गई। जबकि किशनगंज में उसका मत प्रतिशत 9.6 फीसदी से बढ़कर 23.4 फीसदी और बैसी में 10.3 फीसदी से बढ़कर 38.2 फीसदी हो गया।
जहां-जहां एआईएमआईएम के वोट बढ़े उन सभी सीटों पर उसे जीत नहीं मिली। किशनगंज में कांग्रेस को जीत मिली, हालांकि कुछ महीने पहले उपचुनाव में एआईएमआईएम को जीत मिली थी। हालांकि आमोर, बैसी और कोचाधामन सीटों पर एआईएमआईएम को जीत हासिल हुई।
आश्चर्य नहीं कि अब एआईएमआईएम पश्चिम बंगाल में किस्मत आजमाने जा रही है। एआईएमआईएम के नेता और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की हालिया कोलकाता यात्रा के समय सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस ने जिस प्रकार प्रतिक्रिया दी उससे पता चलता है कि सरकार वाकई चिंतित है।
ओवैसी पश्चिम बंगाल के सबसे लोकप्रिय इस्लामिक धार्मिक संस्थानों में से एक फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ समझौता करने पहुंचे थे। शायद यह पहला अवसर है जब एआईएमआईएम एक इस्लामिक दल के साथ समझौता कर रही है। उसने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के साथ एक तरह का समझौता किया था। असम में उसने चुनाव नहीं लडऩे का निर्णय लिया। वहां उसके पास विकल्प था कि वह बदरुद्दीन अजमल के ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक के साथ मिलकर चुनाव लड़े या उसके खिलाफ लड़े। इसी प्रकार पार्टी का कहना है कि वह केरल में चुनाव नहीं लड़ेगी क्योंकि वहां इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) पहले ही परिदृश्य में है। परंतु वह पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ रही है और 2022 में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लडऩे की योजना बना रही है। एआईएमआईएम गंभीर है लेकिन प्रश्न यह है कि पश्चिम बंगाल में उसके लिए क्या संभावनाएं हैं?
बंगाल के मुस्लिमों पर व्यापक अध्ययन करने वाले और दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष रहे अभिजित दासगुप्ता कहते हैं कि इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। वह दो बातें कहते हैं: पहली, दक्षिण बंगाल के मुस्लिम ज्यादातर धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम बने हैं और उनके लिए ओवैसी से जुड़ाव मुश्किल हो सकता है क्योंकि उनका परिवार कुलीन मुस्लिम वर्ग से आता है और भाषा भी एक बड़ी बाधा है।
दक्षिण बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के अधिकारी परिवार का दबदबा रहा है और वह हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं। प्रोफेसर दासगुप्ता का कहना है कि ऐसे में यदि मुस्लिम वोट बंटे तो तृणमूल कांग्रेस को नुकसान होगा। परंतु वह सवाल उठाते हैं कि क्या ऐसे क्षेत्र में एआईएमआईएम की कोई भूमिका हो सकती है जहां भाषाई पहचान एक बड़ा मुद्दा है? ध्यान रहे बिहार में भाषाई पहचान जैसी कोई बात नहीं थी।
वह कहते हैं कि उत्तरी बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बहुत मजबूत है और जिस फुरफुरा संप्रदाय के भरोसे एआईएमआईएम जगह बनाने की कोशिश में है उसकी कोई खास मौजूदगी नहीं है।
ऐसे में एआईएमआईएम को वोट जुटाने के लिए बड़ा समर्थन जुटाना होगा। मालदा, मुर्शिदाबाद, उत्तर दिनाजपुर और दक्षिण दिनाजपुर में 40 और 50 फीसदी मुस्लिम आबादी है। कुछ जगहों पर तो और भी ज्यादा। इन इलाकों में तृणमूल कांग्रेस की पकड़ है। एआईएमआईएम के आगमन केवल तृणमूल कांग्रेस के वोट ही नहीं बंटेंगे बल्कि समूचे मुस्लिम वोट बंटेंगे। जाहिर है इसका लाभ भाजपा को मिल सकता है। परंतु उनका आकलन है कि एआईएमआईएम के लिए बिहार की सफलता पश्चिम बंगाल में दोहराने की खातिर चार महीने का समय कम है।
हो सकता है यह सच हो लेकिन एआईएमआईएम का जनाधार जरूर बढ़ेगा। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव के लिए उसे नैतिक बल भी मिलेगा। उत्तर प्रदेश में यह बात विपक्ष को नागवार गुजरेगी। बहरहाल पश्चिम बंगाल पार्टी के लिए सवालिया निशान बना रहेगा।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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