संपादकीय: अधिकार और आजादी (जनसत्ता)

अदालत इस कानून की समीक्षा करेगी। जबसे कुछ राज्यों ने धर्मांतरण निरोधक और धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी कानून बनाए हैं, उन्हें लेकर विरोध के स्वर उठने लगे हैं। इन कानूनों को संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का हनन करने और सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाला माना जा रहा है।

ऐसा केवल किसी अवधारणा या आशंका के आधार पर नहीं कहा जा रहा। उत्तर प्रदेश में यह कानून लागू होने के बाद से कई ऐसे लोगों को गिरफ्तार और प्रताड़ित किया जा चुका है, जिन्होंने अपना धर्म बदल कर विवाह किया। इस प्रक्रिया में ज्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को निशाना बनाया गया है।

जबसे योगी आदित्यनाथ ने वहां सत्ता की कमान संभाली है, तभी से लव जिहाद रोकने के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को प्रताड़ित करने की शिकायतें मिलती रही हैं। योगी सरकार का मानना है कि अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ युवा जानबूझ कर हिंदू लड़कियों को फांसते और फिर उनका धर्मांतरण करा कर उनसे विवाह करने का ढोंग रचाते हैं। इसी प्रवृत्ति पर रोक लगाने के मकसद से उसने धर्मांतरण अध्यादेश लागू किया है।

हालांकि धर्मांतरण हाल की कोई घटना नहीं है। ईसाई मिशनरियों ने बड़े पैमाने पर हमारे यहां लोगों का धर्मांतरण किया है। उन पर आरोप लगते रहे हैं कि वे लोगों को किसी प्रकार का लोभ देकर धर्म बदलने को राजी करती रही हैं। मगर इसे लेकर समाज के स्तर पर कोई बड़ा विरोध का भाव इसलिए नजर नहीं आया कि हमारे यहां हर किसी को स्वेच्छा से कोई भी धर्म या पूजा पद्धति अपनाने की स्वतंत्रता मिली हुई है।

इसी तरह विवाह आदि में अड़चन आने पर कई लोगों को इस्लाम धर्म अपनाते देखा गया है, इसलिए कि उसे अपनाना बहुत सहज माना जाता है। मगर धर्म बदलने और दूसरा कोई धर्म अपनाने की आजादी तभी उचित मानी जा सकती है, जब वास्तव में उससे आस्था जुड़ी हो।

अगर गलत मंशा से कोई इस आजादी का उपयोग करे, तो उसे अपराध ही माना जाना चाहिए। फिर भी वह इस बात से तय होगा कि धर्म के नाम पर जिसके साथ छल हुआ है या उसके साथ कोई ठगी की गई है, वह इस बाबत शिकायत दर्ज कराए। अभी तक संविधान में सरकारी तंत्र को यह अधिकार प्राप्त नहीं था कि वह अपनी तरफ से निगरानी रखे कि किसी का जबरन धर्मांतरण तो नहीं कराया जा रहा।

इसी अवरोध को कुछ सरकारों ने खत्म करने का रास्ता निकाला है। केवल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकारें इस दिशा में सक्रिय नहीं हुई हैं, मध्यप्रदेश ने भी हाल ही में अपने यहां ऐसा कानून बना दिया। कुछ और भाजपा शासित सरकारें इस दिशा में आगे बढ़ने को उत्सुक हैं।

निस्संदेह सरकारों का फर्ज है कि वे अपने नागरिकों के साथ होने या हो सकने वाली किसी भी तरह की धोखाधड़ी को रोकने के उपाय करें। मगर इसमें उनकी भी मंशा साफ होनी चाहिए। अगर किसी कानूनी प्रावधान के जरिए वे अपना कोई छिपा राजनीतिक मकसद साधने का प्रयास करेंगी, तो वह विवादों से परे नहीं रह सकता।

फिलहाल सबसे बड़ा सवाल संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का है। अब सर्वोच्च न्यायालय इन कानूनों की समीक्षा में तय करेगा कि इन्हें बनाने के पीछे सरकारों की मंशा कितनी साफ है और संवैधानिक मूल्यों को इससे चोट पहुंचती है या नहीं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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