विपक्ष बनकर दिखाएं, व्यर्थ है यूपीए के नेता पर बहस ( नवभारत टाइम्स)

 दिक्कत यह है कि राष्ट्रीय राजनीति को एनडीए और यूपीए के दो परस्पर विरोधी खेमों के रूप में समझने का दौर पीछे छूट चुका है। एसपी, बीएसपी, तृणमूल, बीजेडी, टीआरएस और वाईएसआरसी जैसी बड़ी ताकतें दोनों गठबंधनों के बाहर हैं, और आगे भी इनमें जाने का उनमें कोई रुझान नहीं है।


लंबे अर्से बाद विपक्षी खेमे में एकजुटता को लेकर चर्चा सुनाई पड़ी है। बात अब तक अनौपचारिक थी, पर महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही शिवसेना ने यह कहकर इसे औपचारिक रूप दे दिया कि शरद पवार यूपीए चेयरपर्सन पद के ज्यादा काबिल हैं। अभी इस पद पर सोनिया गांधी हैं, जिनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। कहा जा रहा है कि पवार यूपीए की कमान संभाल लें तो एनडीए से अलग हो चुकी, पर कांग्रेस के साथ असहज महसूस करने वाली अकाली दल जैसी पार्टियां भी यूपीए का हिस्सा बन सकती हैं। इससे सत्तारूढ़ एनडीए के सामने एक मजबूत यूपीए को खड़ा करना आसान होगा।


विपक्षी खेमे की यह सुगबुगाहट पहली नजर में उम्मीद जगाती है, क्योंकि इसकी चिंता चुनावी गठबंधन से ज्यादा दीर्घकालिक विपक्षी एकता जान पड़ती है। दिक्कत यह है कि राष्ट्रीय राजनीति को एनडीए और यूपीए के दो परस्पर विरोधी खेमों के रूप में समझने का दौर पीछे छूट चुका है। एसपी, बीएसपी, तृणमूल, बीजेडी, टीआरएस और वाईएसआरसी जैसी बड़ी ताकतें दोनों गठबंधनों के बाहर हैं, और आगे भी इनमें जाने का उनमें कोई रुझान नहीं है। एनडीए की बात करें तो वह बीजेपी की ही कोशिशों से लुप्तप्राय हो रहा है। एजीपी, शिवसेना और अकाली दल जैसे इसके पुराने घटक दल इससे अलग हो चुके हैं।


जेडीयू न केवल बिहार में सिकुड़ कर आधा हो गया है, बल्कि अरुणाचल प्रदेश में सात में से छह विधायक बीजेपी द्वारा तोड़ लिए जाने का असर एनडीए से उसके रिश्तों पर कैसा पड़ता है, यह देखा जाना बाकी है। ऐसे में आज के एनडीए को बीजेपी का हल्का सा विस्तार भर मानना होगा। रही बात यूपीए की तो उसके घटकों की हालत और बुरी है। डीएमके के अलावा इनमें एक का भी बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ कोई कड़ा बयान खोजना मुश्किल है। ध्यान रहे कि एनसीपी नेता शरद पवार को यूपीए चेयरपर्सन बनाकर विपक्षी एकता सुनिश्चित करने की चिंता सबसे ज्यादा शिवसेना की है, जो केवल मुख्यमंत्री पद को मुद्दा बनाकर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनी है।


हिंदुत्व समेत तमाम बड़े मुद्दों पर उसके विचार बीजेपी जैसे ही हैं। अकाली दल का हाल तो और भी बुरा है, जिसे नए कृषि कानूनों का संसद में समर्थन करने के बाद जनदबाव में सरकार से अलग होना पड़ा। ऐसी पार्टियां मोदी सरकार की आलोचना करती हैं, तो इससे नीतियों का विरोध नहीं जाहिर होता। लोकतंत्र में विपक्ष की अहमियत उसकी भौकाल से नहीं, विकल्प देने की उसकी क्षमता से तय होती है। इसलिए बेहतर होगा कि तमाम नए-पुराने विपक्षी दल पहले जनता की आवाज बनें, और जमीन पर उसका भरोसा जीतने का प्रयास करें। रही बात उन्हें एकजुट रखने वाले ढांचे और नेता की, तो वह नया क्यों नहीं हो सकता? इसके उलट ऊपर से विपक्षी एकता को लेकर उठाई गई बहस से यह खतरा जुड़ा है कि विपक्ष की जो एक क्षीण सी धारा जब-तब सरकार के सामने खड़ी दिख जाती है, वह भी कहीं विलुप्त न हो जाए।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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