सब्सिडी, सब सीढ़ी और किसान ( दैनिक ट्रिब्यून)

रमेश जोशी


चाय का गिलास उठाते हुए तोताराम बोला— मास्टर, तू है बड़ा कंजूस। इस समय दिल्ली के बोर्डरों पर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि अलग-अलग राज्यों से आए हुए किसान बिना किसी जाति-धर्म के भेदभाव के सबको चाय के साथ आलू-गोभी के पकोड़े खिला-खा रहे हैं। कह रहे हैं मोदी जी आएंगे तो उन्हें भी खिलाएंगे लंगर। गुरु के बन्दे हैं बड़े दिलवाले।


हमने कहा— मोदी जी ने एक बार ‘पकोड़ा-प्रोफेशन’ की चर्चा भी तो की थी। यदि इन्हें खुद को ही पकोड़े खाने होते तो इस सर्दी में घर छोड़कर क्यों आते? वहीं रजाई में घुसे-घुसे ही खा लेते। लगता है दिल्ली में पकोड़ों का मार्किट तलाशने आए हैं। तेरे ख्याल से इनके दिल्ली आने का क्या कारण हो सकता है ?


बोला— ये सब्सिडी के लिए आए हैं।


हमने कहा—सबको सीढ़ी नहीं मिल सकती। कुछ ही भाग्यशाली लोग होते हैं, जिनको मिल जाती है। वे छत पर पहुंचते ही सीढ़ी को निर्देशक मंडल में बैठा देते हैं, मतलब बरामदे में रखवा देते हैं ताकि कोई और छत पर न आ सके। रावण ने भी सोचा था, आकाश को सीढ़ी लगा दूंगा लेकिन संभव नहीं हुआ।


बोला—या तो तेरी अंग्रेजी कमजोर या फिर मोबाइल पर बात करते-करते कान ख़राब हो गए हैं। मैं ‘सब सीढ़ी’ नहीं ‘सब्सिडी’ कह रहा हूं। इसका मतलब होता है—सहायता, समर्थन। वह मदद, जिससे व्यक्ति किसी काम को घाटा उठाये बिना चालू रख सके।


हमने कहा— एक ही बात है। हमारी देवनागरी लिपि एक सम्पूर्ण और वैज्ञानिक लिपि है, रोमन में ‘ढ़’ लिख सकने की क्षमता नहीं है इसलिए वे ‘ढ़ी’ की जगह ‘डी’ लिखते और बोलते हैं। अर्थ और भाव में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही प्राप्त करने वाले को ऊंचा उठा देते हैं। जैसे संसद में ‘माननीयों’ को खाने में सब्सिडी दी जाती है। परिवार सहित आजीवन मुफ्त चिकित्सा, यात्रा सुविधा, पद पर रहते हुए आय कर नहीं लगता, मकान, बिजली, पानी मुफ्त। किसान तो केवल अपने उत्पाद पर ही थोड़ी सी मेहनत की कमाई चाहता है। मुफ्त कुछ नहीं चाहता।


बोला—यह तो किसान की अनुचित मांग है। राम, कृष्ण, शक, हूण, मुग़ल, अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली किसी के ज़माने में सब्सिडी का ज़िक्र नहीं मिलता। यह सब देश के नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी द्वारा 1966 में लागू ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की कांग्रेसी खुराफात है। इसने किसानों की आदत ख़राब कर दी। अनाप-शनाप अनाज उपजा कर हमारे सिर आकर खड़े हो जाते हैं। लो, खरीदो। अरे, भाई अनाज ही खरीदते रहेंगे क्या?


बड़े भाग सत्ता-धन पावा


सब्सिडी में व्यर्थ नसावा।


कुछ ढंग का काम भी करने दोगे या नहीं?


हमने कहा—अन्न को तो ब्रह्म कहा गया है। उसके बिना तो जीवन ही संभव नहीं। इससे ज्यादा ढंग का काम और क्या हो सकता है?


बोला—बस, भकोसते रहो रोटियां ही रोटियां। अरे, किसी में अकल हो, समझ हो और बड़ा दिल हो तो बहुत से काम हैं जैसे विश्व की सबसे ऊंची मूर्तियों और लाखों दीयों का रिकार्ड बनाना और रफाल, रोमियो हेलीकॉप्टर खरीदना, बुलेट ट्रेन शुरू करना, संसद का नया भवन बनवाना, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए साढ़े आठ हजार करोड़ के अमेरिका के राष्ट्रपति जैसे दो बोइंग 777 विमान खरीदना आदि।


जनता की मत सुनो इसे तो ऐसे ही रोने-धोने की आदत है। थोड़ी देर में चुप हो जाएगी। 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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