गौरतलब है कि बदायूं के उघैती थानाक्षेत्र में रविवार की शाम पचास वर्ष की एक महिला गांव के मंदिर में पूजा करने गई और जब काफी देर तक नहीं लौटी तो घर के लोग परेशान हो गए। बाद में रात साढ़े ग्यारह बजे मंदिर का पुजारी अन्य दो लोगों के साथ बुरी तरह घायल अवस्था में उस महिला को घर के पास फेंक कर भाग गया।
उसके शरीर से खून बह रहा था और आखिर उसकी मौत हो गई। सिर्फ इतने पर ही पुलिस को तुरंत सक्रिय होकर मामले की तफ्तीश करनी चाहिए थी। लेकिन लापरवाही का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि रात में ही परिजनों की शिकायत के बाद भी पुलिस अगले दिन पहुंची और पहले रिपोर्ट दर्ज नहीं की।
हालांकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी महिला से सामूहिक बलात्कार और जघन्य तरीके से उसकी हत्या के शुरुआती आरोपों की पुष्टि हुई। रिपोर्ट के मुताबिक उसके निजी अंग बुरी तरह घायल थे, लोहे की छड़ से गहरी चोट पहुंचाई गई थी और उसका एक पैर तोड़ दिया गया था।
जाहिर है, पोस्टमार्टम रिपोर्ट पुलिस के लिए असुविधाजनक है और इसके बाद महज चेहरा बचाने के लिए प्राथमिकी दर्ज की गई और बुधवार को दो आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। जबकि मुख्य अभियुक्त मंदिर का पुजारी फरार हो गया और वीडियो बना कर सबको गुमराह करने की कोशिश में लगा था।
सवाल है जब पीड़ित महिला की स्थिति और फिर मौत के बाद प्रथम दृष्ट्या ही घटना की तस्वीर साफ लग रही थी कि उसके साथ क्या हुआ होगा, तब पुलिस ने आखिर किन वजहों से मुख्य आरोपी की बात को सही मान कर चलती रही और मामले को हादसे का रूप देने की कोशिश करती रही! जब पोस्टमार्टम में बलात्कार और उसके बाद बर्बरता के तथ्य सामने आए और मामले ने तूल पकड़ लिया, तब जाकर संबंधित पुलिसकर्मियों और थाना प्रभारी को निलंबित करने की बात कही गई।
लेकिन क्या यह सच नहीं है कि पुलिस के इस तरह के रवैये की वजह से ही ऐसी घटनाओं की जमीन बनती है और अपराधी मानसिकता वाले लोग जघन्य अपराध करने से भी नहीं हिचकते?
यह कोई अकेला मामला नहीं है जिसमें पुलिस ने लापरवाही दिखाई या फिर तुरंत सक्रिय होकर मामले में जरूरी कार्रवाई करने के बजाय आरोपियों के गुमराह करने वाले बयानों को ही जांच का आधार मानती रही। कुछ समय पहले हाथरस मामले में भी सरकार और पुलिस महकमे का जो रवैया सामने आया था, वह आरोपियों के बजाय सामूहिक बलात्कार और जघन्य हत्या की शिकार युवती और उसके परिवार को ही कठघरे में खड़ा कर रहा था।
जबकि बाद में सीबीआइ ने जांच-पड़ताल के बाद पीड़ित पक्ष के आरोपों को सही माना। पुलिस और प्रशासन की लापरवाही की वजह से अपराधियों के बढ़ते हौसले ऐसे राज्य की तस्वीर बनते जा रहे हैं, जिसे अपराध से मुक्त करने का दावा बढ़-चढ़ कर किया जाता है।
महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की दुहाई देकर बहुतेरे नियम-कानून लागू किए जा रहे हैं, मगर जमीनी हकीकत यह है कि दिनोंदिन उत्तर प्रदेश में महिलाओं का जीवन असुरक्षित और दुष्कर होता जा रहा है। समाज के स्तर पर हालत यह हो चुकी है कि मंदिर जैसी जिस जगह को महिला ने सबसे सुरक्षित जगह माना होगा, वहां भी उसके खिलाफ ऐसा जघन्य अपराध हुआ कि उससे जीने का हक तक छीन लिया गया। उत्तर प्रदेश में सब कुछ ठीक करने के आश्वासन और दावे का क्या यही मतलब होता है?
सौजन्य - जनसत्ता।
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