महेश परिमल
कुछ दिन पहले शाम को घूमते हुए मुझे किसी ने आवाज दी- ‘मैयू’। मैं आश्चर्य में पड़ गया। यह मेरे बचपन का नाम है। घर के सदस्य और दोस्त मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। फिर यहां इस नए शहर में मुझे इस नाम से कौन पुकारेगा! देखा, तो मुझसे उम्र में काफी कम लग रहा व्यक्ति मेरे पास आकर मेरा अभिवादन करने लगा। आशीर्वाद देते हुए मैंने उससे पूछा- ‘मुझे इस नाम से इस शहर में कोई नहीं पुकारता। आप कौन हैं और मुझे कैसे जानते हैं?’ उसने जो कुछ बताया, उससे मैं हतप्रभ था। दरअसल, माता-पिता अपने बच्चों के नाम को छोटा करके या फिर प्यार से बुलाने के लिए कई नाम रख देते हैं।
जैसे पप्पू, राजू, चुन्नू, मुन्नु, गिल्लू, टुन्नू आदि। इन नामों की एक अलग ही महिमा होती है। बचपन में दोस्त एक-दूसरे को छोटे नामों से ही पुकारते हैं। धीरे-धीरे समझदारी आती है, तो फिर असली नाम सामने आ जाता है। दोस्त अगर किसी महकमे में अधिकारी हो गया, तो संबोधन ‘साहब’ हो जाता है। पर छोटे नाम जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ते। सेवानिवृत्ति के बाद अगर किसी को घर के संक्षिप्त नाम से पुकारा जाए, तो सहसा विश्वास नहीं होता।
उस दिन ऐसा ही हुआ, जब मुझे किसी ने मेरे संक्षिप्त नाम से पुकारा। मैंने पुकारने वाले को देखा, तो वह मेरी उम्र का नहीं लगा। मैंने आश्चर्य से उससे पूछा- ‘आप मुझे इस नाम से कैसे जानते हैं?’ उसने बताया- ‘आपसे काम था, मेरे ताऊ जी ने आपसे मिलने के लिए कहा। उन्होंने मुझे यह ताकीद की थी कि अगर उन्हें संक्षिप्त नाम से पुकारोगे, तो वे समझ जाएंगे कि यह मेरे बचपन से जुड़े व्यक्ति या दोस्त से संबंध रखता है। इसलिए मैं क्षमा चाहता हूं कि आपको इस नाम से पुकारा।’ उसकी सहृदयता ने मुझे बांध लिया।
एक उम्र के बाद बचपन का नाम व्यक्ति भूल जाता है, क्योंकि इस नाम से पुकारने वाले धीरे-धीरे इस दुनिया से ही चले जाते हैं। या फिर लोग नौकरी के चक्कर में शहर ही छोड़ देते हैं। इंसान ऐसे शहर में पहुंच जाता है, जहां उसे उसके मूल नाम या उपनाम से ही जाना जाता है। यहां नाम नहीं, बल्कि उसके कार्यों से उसकी पहचान होती है। ‘नाम में क्या रखा है’, कहने वाले अगर घर के नामों पर गौर करें, तो पाएंगे कि उस नाम में जो आत्मीयता है, अपनापन है, वह अन्य किसी नाम में नहीं।
वह छोटा-सा नाम ही उन दिनों हमारी पहचान हुआ करता था। यह भी सच है कि मोहल्ले में उस नाम के कई और बच्चे हुआ करते थे, पर शरारतों के नाम पर कुछ नाम ही होते थे, जो एकबारगी ही सामने आ जाते थे। उन दिनों शरारतों से ही बच्चों की पहचान हुआ करती थी। मारपीट के नाम पर मोहल्ले के कुछ नाम विख्यात होते थे। दूसरी ओर अच्छी पढ़ाई करने वाले भी होते थे। कुछ लिक्खाड़ होते थे। कुछ पेंटिंग करते, कुछ तो अपने साथियों की कापी-पेंसिल चुराने वाले भी होते थे। कुछ कभी भी होमवर्क न करने वाले भी होते थे। कई बार उनकी इन आदतों के कारण भी उनके नाम रख दिए जाते थे, जो शहर छोड़ने तक उनका पीछा नहीं छोड़ते थे।
आमतौर पर हममें से ज्यादातर का कोई न कोई छोटा-सा नाम होता ही है। अब भले ही उसका प्रयोग कोई नहीं करता, पर मन के भीतर वह नाम अब भी यदा-कदा सामने आ जाता है। कई बार इस नाम से मां ने पुकारा, पिता ने चपत लगाई। भैया ने डांटा, दीदी ने प्यार से राखी बांधी। छोटी बहन इस नाम को और बिगाड़ कर चिढ़ाती। स्मृतियों में ये नाम आज धुंधले हो रहे हैं। कई बार ये नाम हंसाते हैं, तो कई बार रुलाते भी हैं। अब इन नामों को लेने वाला कोई नहीं बचा। केवल नाम ही बचा है। भीतर से ये नाम कहीं कचोटता-सा लगता है। बचपन के नाम से पीछा छूटा, तो उसके बाद हमें कई नामों से संबोधित किया गया।
पर बचपन के नाम में जो मिठास थी, वह बाकी के नामों में नहीं रही। आज नाम के साथ हम भी कहीं गुम हो रहे हैं। आधार कार्ड का नाम, बैंक खाते का नाम या फिर जिस नाम पर पेंशन आ रही है। ये सारे नाम भले ही जीवित होने का प्रमाण-पत्र माने जाते हों, पर बचपन के नाम की ऊर्जा अब कहीं दिखाई नहीं देती। उस नाम की कोई प्रामाणिकता नहीं है, फिर भी उस नाम पर केवल अपनों का ही हक हुआ करता था। अपने भले ही हमें डांटते हों, मारते हों, पर हमारी कोशिश रही कि कभी उस नाम को बदनाम नहीं किया। स्मृतियों के आंगन में यह नाम सदैव फुदकता रहता है। कभी-कभी कुलांचे भी मार लेता है।
अपने शहर की गलियों की खाक छानते हुए कभी इस नाम से कोई पुकार भी लेता है। मंच पर कभी यादों की गठरी खोलते हुए हम बता भी देते हैं अपने बचपन का नाम। बड़ा अच्छा लगता है उस समय बचपन को जीते हुए। बाद भी फिर उम्र हम पर हावी हो जाती है। धीमें कदमों से लाठी के सहारे चलते हुए वह नाम धीरे-धीरे विलीन होने लगता है। फिर नए नाम, बाबूजी, अंकल जी, चाचा जी, ताऊ जी, दादू या फिर नानू के सहारे जिंदगी कटने लगती है।
सौजन्य - जनसत्ता।
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