हरियाणा सरकार ने राज्य में प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में स्थानीय प्रत्याशियों के लिए 75 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर न केवल एक पुरानी बहस को नई जमीन दे दी है बल्कि देशवासियों के बीच एक नए प्रकार के टकराव की गुंजाइश भी बना दी है। राज्य विधानसभा तो पिछले साल ही यह बिल पास कर चुकी थी। राज्यपाल की मंजूरी के बाद अब इसके लागू होने का रास्ता साफ हो गया है।
स्थानीय प्रत्याशियों के लिए नौकरियों में आरक्षण की न तो मांग नई है, न ही इसे लेकर विभिन्न दलों के बीच चलने वाली राजनीतिक उठापटक में कोई नयापन है। महाराष्ट्र में स्थानीय निवासियों का रोजी-रोजगार सुनिश्चित करने के लिए बाहरी लोगों को इनसे दूर रखने का मुद्दा शिवसेना और फिर एमएनएस की राजनीति का मुख्य आधार रहा है। लेकिन उस राजनीति को अभी हाल तक नीति निर्माण से जुड़े हलकों में ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता था, क्योंकि सत्ता में रहते हुए पार्टियां स्थानीय युवाओं को आरक्षण जैसे मुद्दों पर नरम पड़ जाती रही हैं। यह स्थिति पिछले कुछ वर्षों में बदल गई है। बीजेपी शासित राज्यों में न केवल चुनावी मुद्दे के रूप में इस मांग को तवज्जो दी गई है बल्कि सरकारें भी इसे लेकर काफी गंभीर दिखने लगी हैं।
इसी का नतीजा है कि हरियाणा में बहुत ऊंची नौकरियों को छोड़कर बाकी सबका तीन चौथाई हिस्सा स्थानीय आबादी के लिए आरक्षित करने की घोषणा हो गई है जबकि मध्य प्रदेश और कर्नाटक में बीजेपी की सरकारें ऐसा इरादा जता चुकी हैं। गौर से देखें तो हरियाणा सरकार का यह फैसला राष्ट्रीय विकास की उस प्रक्रिया को ही सवालों के घेरे में ला खड़ा करता है, जिसे आजादी के बाद और खासकर 1960 के दशक में अपनाया गया था और अंतर्निहित पक्षपात के बावजूद पूरे देश में जिसे लेकर अभी तक एक अघोषित सर्वसम्मति बनी रही है।
इसकी धुरी यह प्रस्थापना थी कि वित्तीय संसाधन पूरे देश से जुटाए जाएं लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए पूंजी लगाते वक्त यह देखा जाए कि उसपर सबसे ज्यादा रिटर्न कहां से मिलने वाला है। इसीलिए चाहे भाखड़ा-नांगल परियोजना हो या बंदरगाह और परिवहन का जाल बिछाने का मामला, केंद्र की ओर से ढांचागत पूंजी निवेश पश्चिमी और दक्षिणी समुद्र तटीय राज्यों के अलावा पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में ही हुआ। इसकी बदौलत कुछ राज्यों में खेती और उद्योग-धंधे तेजी से विकसित हुए जबकि बाकी राज्यों की पहचान लेबर सप्लाई तक सिमटती गई।
हाल तक इन राज्यों के लोगों को इसमें कुछ अटपटा नहीं लगता था क्योंकि लुधियाना, गुड़गांव, मुंबई, अहमदाबाद और बेंगलुरु इन्हें अपने ही गांव-घर का विस्तार लगते थे। मगर धीरे-धीरे संकीर्ण राजनीति की एक धारा ऐसी उभरी जो पिछड़े राज्यों से आने वालों को बाहरी के रूप में चित्रित करने लगी। अब तक यह काम अपने पांव जमाने में जुटी क्षेत्रीय ताकतें ही करती थीं, लेकिन अभी देश की सबसे बड़ी पार्टी के इस दिशा में बढ़ जाने के बाद कई राज्यों की युवा पीढ़ी के पास खुद को दिलासा देने का कोई जरिया नहीं बचेगा।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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