तुलसी जयकुमार, प्रोफेसर, एस पी जैन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट ऐंड रिसर्च
यह वर्ष का ऐसा समय है, जब देश भर के बिजनेस स्कूल छात्रों को दो साल के गहन प्रशिक्षण और संगठन के प्रबंधन के लिए तैयार करते हैं, खासकर आर्थिक फायदे के लिए। छात्र अपनी पसंद के प्रबंधन संस्थान का चयन करते हैं और तब पैसा उनमें से हर किसी के दिमाग में होता है। ऐसा करते हुए छात्र बीटल्स संगीत मंडली के एक गीत को चरितार्थ करते हैं। साल 1963 में बीटल्स का यह गीत आया था, जिसका शीर्षक था, यही तो मैं चाहता हूं, जिसके बोल के भावार्थ कुछ इस प्रकार हैं कि अभी मुझे दौलत दो, यही तो मैं चाहता हूं। प्रबंधन की पढ़ाई पैसे बनाने के इरादे से की जाती है। पढ़ने के बाद कुछ युवा खुद उद्यमी बन पैसे कमाने के बारे में सोचते हैं, तो दूसरे छात्रों को मोटे वेतन वाली कॉरपोरेट नौकरियों की उम्मीद होती है। साल-दर-साल यही होता आ रहा है। प्रबंधन संस्थान के संकाय सदस्य के रूप में मैं भी विशेषाधिकार प्राप्त युवाओं के दिमाग में ज्यादातर पैसे का ही वर्चस्व पाती हूं, जबकि समाज को प्रभावित करने वाले गंभीर मुद्दों को समझने की क्षमता उनमें कम ही लगती है। साक्षात्कार तब ऐसा मंच बन जाता है, जहां दिशा रवि मामले या अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति के मामले में पेश चुनौतियों पर युवाओं की राय एक मालूम पड़ती है। युवा अक्सर कहते हैं कि मेरी राजनीति में दिलचस्पी नहीं है और मैं उस पर गौर नहीं करता। ऐसा सतही स्पष्टीकरण आश्चर्य है। क्या भारत के विशेषाधिकार प्राप्त युवाओं को वास्तव में बड़े मुद्दों की भी परवाह नहीं है? यहां विशेषज्ञों के विचार अलग-अलग हैं। एक राय है, युवाओं को राजनीतिक, सामाजिक मामलों में अति-सक्रियता से बचना चाहिए। गैर-लाभकारी संगठनों में काम करने से इनकार करना चाहिए। भौतिकवादी विचार रखने चाहिए। पैसे कमाना, कारोबार शुरू करना, भौतिक दुनिया में अच्छा करना ही उनका लक्ष्य होना चाहिए। एक राय यह भी है कि आंदोलन में भाग लेना देश को बेहतर स्थान बनाने का अक्षम तरीका है। युवाओं की एक पीढ़ी आज ‘योलो’ (यू वनली लाइव वंस : जिंदगी मिलेगी न दोबारा) में जीती है और ‘फोमो’ (फीयर ऑफ मिसिंग आउट : वंचित रह जाने के भय) से संचालित होती है। ऐसे में, किसी आंदोलन में भाग लेना इस पीढ़ी के युवाओं के दिमाग में आने वाली आखिरी चीजों में शुमार है।
यदि हम गौर करें, तो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि के लोग ही बहुत हद तक आगे ले गए, जिन्होंने तमाम कठिनाइयों को स्वीकार करने की राह चुनी थी। एक धनी वकील के बेटे सुभाष चंद्र बोस ने 1920 में परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी सिविल-सेवा करियर त्याग दिया था और 25 वर्ष की आयु से पहले ही राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए जेल में डाल दिए गए थे। भगत सिंह सिर्फ 23 के थे, जब उन्हें फांसी दी गई थी। गांधी का सत्याग्रह, जिसने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का आधार बनाया, आंशिक रूप से दक्षिण अफ्रीका में एक अपेक्षाकृत विशेषाधिकार प्राप्त वकील के रूप में भोगे गए भेदभाव का नतीजा था।
हालांकि, आज ‘एक्टिविज्म’ या आंदोलन में भाग लेने को एक गंदे शब्द के रूप में देखा जाने लगा है, जबकि भारत और दुनिया में ऐसे कई राजनीतिक-सामाजिक बदलाव हुए हैं, जो आंदोलन में युवाओं की सक्रियता का परिणाम हैं। अपने देश में भारतीय युवाओं की उच्च शिक्षा तक पहुंच वैसे ही कम है और जो युवा यहां तक पहुंच रहे हैं, उन्हें मात्र संकीर्ण स्वार्थ और धन की पूजा की ओर निर्देशित नहीं करना चाहिए। यह समय है, जब स्कूल, विश्वविद्यालय और प्रबंधन परिसरों में भारतीय युवाओं को बड़े मुद्दों को गंभीरता से देखने और तर्कपूर्ण तरीके से असंतोष व्यक्त करने के लिए शिक्षित किया जाए। यह एक ऐसे देश में महत्वपूर्ण है, जिसे अपनी आबादी की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है। देश में अच्छी गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा के लिए विशेषाधिकार व इससे जुडे़ अवसरों को कभी खत्म नहीं करना चाहिए। अपने तात्कालिक भौतिक फायदे के लिए यथास्थिति बनाए रखने पर जोर न रहे। निष्क्रिय उपभोक्ता, प्रबंधक या नेता बनने के बजाय युवाओं को एक बेहतर समाज निर्माण के लिए जिम्मेदार नागरिक व अच्छे बदलाव के प्रतिनिधि बनने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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