कोरोना संकटकाल के दौरान कर्जदारों की किस्तों की वापसी के स्थगन और ब्याज पर ब्याज के मामले में शीर्ष अदालत का फैसला जहां सरकार व बैंकों के लिये राहतकारी है, वहीं कर्जदाताओं को भी कुछ सुकून जरूरत देता है। दरअसल, कोरोना संकट में लॉकडाउन के बाद उपजी विषम परिस्थितियों से जूझते कर्जदारों को सरकार ने इतनी राहत दी थी कि वे आर्थिक संकट के चलते अपनी किस्तों के भुगतान को तीन महीने के लिये टाल सकते हैं, लेकिन बाद में उन्हें इसका ब्याज भी देना होगा। कालांतर कोरोना संकट की बढ़ती चुनौती के बाद यह अवधि अगस्त, 2020 तक बढ़ा दी गई।
लेकिन कर्जदाता खस्ता आर्थिक स्थिति और रोजगार संकट की दुहाई देकर यह अवधि बढ़ाने की मांग करते रहे। वहीं बैंकों ने निर्धारित अवधि के बाद न केवल कर्ज और ब्याज की वसूली शुरू की बल्कि वे कर्जदारों से चक्रवृद्धि ब्याज भी वसूलने लगे, जिससे उपभोक्ताओं में आक्रोश पैदा हो गया है। मामला शीर्ष अदालत में भी पहुंचा। हालांकि, शीर्ष अदालत पहले भी कह चुकी थी कि ब्याज पर ब्याज नहीं वसूला जा सकता।
लेकिन अदालत का अंतिम फैसला नहीं आया था। सभी पक्ष अपने-अपने लिए राहत की उम्मीद लगाये बैठे थे। सरकार की कोशिश थी कि कर्ज व ब्याज की वापसी सुचारु रूप से शुरू हो। बैंक भी यही उम्मीद लगा रहे थे। वहीं कर्जदार कोरोना संकट की दूसरी लहर के बीच चाह रहे थे कि किस्त वापसी हेतु स्थगन की अवधि बढ़े। निस्संदेह, आर्थिकी का चक्र सरकार, बैंक व कर्जदारों की सामूहिक भूमिका से पूरा होता है। कर्जदार अपना कर्ज-ब्याज लौटाते हैं तो बैंकों में आया पैसा नये ऋण देने और जमाकर्ताओं के ब्याज चुकाने के काम आता है। यह आर्थिक चक्र सुचारु रूप से चलता रहे इसके लिये जरूरी है कि समय पर उस कर्ज की वापसी हो, जिसमें कोरोना संकट के दौरान व्यवधान आ गया था। निस्संदेह इसे अब लंबे समय तक टाला जाना संभव भी नहीं था।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला बैंकिंग व्यवस्था को सुचारु बनाने की तरफ बढ़ा कदम ही है। जिसके बाद कर्जदारों की किस्तें नियमित होंगी और वे निर्धारित ब्याज चुकाएंगे। वहीं दूसरी ओर बैंकों को पूंजी संकट से उबरने में मदद मिलेगी। लेकिन वे कर्जदारों से चक्रवृद्धि ब्याज नहीं वसूल पायेंगे। सही भी है लॉकडाउन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था मुश्किल संकटों से गुजरी है। करोड़ों लोगों के रोजगारों का संकुचन हुआ। लाखों लोगों की नौकरी गई। काम-धंधे बंद हुए। तमाम छोटे-बड़े उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए।
अर्थव्यवस्था का चक्र तभी पूरा हो पाता है जब कहीं कड़ी न टूटी हो। जाहिरा तौर पर लघु-मझौले उद्योग से लेकर छोटे कारोबारी बैंकों से ऋण लेकर अपने कारोबार को चलाते हैं। जब बाजार बंद हुए तो उनका काम-धंधा चौपट हुआ। जब कारोबार ही नहीं हुआ तो आय कहां से होती। आय नहीं थी तो कर्ज कहां से चुकाते। निश्चय ही उस दौरान कर्ज वापसी का स्थगन बड़ी आबादी के लिये राहत बनकर आया। साल की शुरुआत में अर्थव्यवस्था के पटरी के तरफ लौटने से उम्मीदें जगी थी कि अब स्थितियां सामान्य हो जायेंगी, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर की दस्तक ने चुनौतियां बढ़ा दी। लगता है हमें कुछ और समय कोरोना की चुनौती से जूझना होगा। इसे न्यू नॉर्मल मानकर आगे बढ़ना है। अर्थव्यवस्था ने गति न पकड़ी तो कोरोना से ज्यादा आर्थिक संकट और गरीबी मार देगी।
हमारे यहां रोज कमाकर रोज खाने वालों का बड़ा वर्ग है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को सामान्य स्थिति की ओर ले जाने के लिये आर्थिक की रक्तवाहनियों में पूंजी प्रवाह जरूरी है। इस आलोक में शीर्ष अदालत का फैसला राहतकारी ही कहा जायेगा, जिससे बैंकों को तो संकट से उबरने में मदद मिलेगी ही, साथ ही बैंक अपनी मनमानी करते हुए ब्याज पर ब्याज नहीं वसूल पायेंगे। माना देश के सामने अब कोरोना संकट की दूसरी लहर की चुनौती है, लेकिन नहीं लगता कि सरकारें लॉकडाउन जैसे सख्त कदमों का सहारा लेंगी। अब वक्त आ गया है कि जान के साथ जहान को भी हमें प्राथमिकता देनी है।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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