कानून के नख-दंत कितने ही सख्त कर दिए जाएं, लेकिन अमल में ढिलाई इनको बेअसर करने के लिए काफी है। बाल यौन शोषण के मामले में ताजा खुलासा भी इसी ओर संकेत कर रहा है। स्वयंसेवी संगठन कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रंस फाउण्डेशन की रिपोर्ट इस चिंता को और बढ़ाने वाली है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल बाल यौन शोषण के तीन हजार मामले थाने में ही दाखिल दफ्तर हो जाते हैं। बच्चों को सिर्फ इसी वजह से न्याय नहीं मिल पाता, क्योंकि सबूत के अभाव में पुलिस मामलों की जांच अदालत में चार्जशीट दायर करने से पहले ही बंद कर देती है।
नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की साल 2019 की रिपोर्ट के आंकड़ों को ही देखें, जो बताते है कि बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों में उनके यौन शोषण के मामलों की हिस्सेदारी 32 फीसदी है। साफ है कि कानून-कायदों की भरमार के बावजूद बचपन अब भी असुरक्षित है। इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि बाल यौन अत्याचार के जितने केस सरकारी आंकड़ों में बताए जाते हैं, असल संख्या इससे कहीं ज्यादा है। यह कटु सचाई है कि हमारे देश में बाल यौन शोषण के बहुत से मामलों को इसीलिए दर्ज नहीं कराया जाता, क्योंकि इन्हें सार्वजनिक करने पर पीडि़त का परिवार खुद को असहज महसूस करता है। पीडि़त बच्चों के परिजन तक रिपोर्ट दर्ज कराने में हिचकिचाते हैं। बड़ी वजह है, लोकलाज व बदनामी का डर। इसकी परवाह भला कौन करता है कि यौन हिंसा की ये घटनाएं पीडि़त बच्चों के दिलो-दिमाग पर कितना गहरा असर करने वाली होती हैं। इतना ही नहीं ये घटनाएं समूचे सामाजिक ताने-बाने को भी चुनौती देती नजर आती हैं। ऐसे मामले तो और भी चिंता पैदा करते हैं, जिनमें पीडि़त व उनके परिजन पुलिस तक तो पहुंच जाते हैं, लेकिन न्याय की दहलीज तक आते-आते मामले दफन भी हो जाते हैं। उच्चतम न्यायालय ने दो साल पहलेे बाल यौन शोषण के मुकदमों की त्वरित सुनवाई के लिए केंद्र सरकार से विशेष अदालतें गठित करने को कहा था। ये अदालतें खास तौर से उन जिलों में गठित की जानी थीं, जहांं यौन अपराधों से बच्चों को संरक्षित करने संबंधी कानून (पॉक्सो) के तहत 100 या इससे अधिक मुकदमे लंबित थे। अदालतें भी काम तब ही कर पाएंगी, जब मामले उन तक पहुंच पाएंगे।
सवाल यह है कि क्या बच्चों के यौन उत्पीडऩ के मामलों में फंसे रसूखदारों के आगे पुलिस बौनी साबित होती है? और यह भी कि क्या पुलिस को ऐसे प्रकरणों में किसी दबाव की वजह से जांंच में ढिलाई बरतने को मजबूर होना पड़ता है? आरोप पत्र दाखिल किए बिना बंद होने वाले प्रकरण तो समूची व्यवस्था पर ही सवाल खड़े करते हैं, सामाजिक जागरूकता के प्रयासों पर भी और जांच की उस प्रकिया पर भी, जिसके चलते पीडि़त बच्चों को न्याय नहीं मिल पाता।'
सौजन्य - पत्रिका।
0 comments:
Post a Comment