वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी और अनुकूलता का स्तर (बिजनेस स्टैंडर्ड)

नितिन देसाई  

उत्तराखंड में आने वाली बाढ़ पर्यावास और विकास से जुड़ी दो अहम आपात स्थितियों की बानगी हैं जिनसे हमें जल्द से जल्द निपटना होगा। ये हैं जलवायु परिवर्तन और विकास की ऐसी गतिविधियां जिन्होंने जलवायु परिवर्तन का प्रभाव काफी गंभीर कर दिया है।


जैसी कि खबरें आ चुकी हैं, पिछले दिनों आई बाढ़ शायद उस ग्लेशियर के पिघलने से आई जो धौलीगंगा नदी का स्रोत है। इसकी वजह जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में इजाफा भी हो सकता है। यह इजाफा वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि के कारण हुआ है।


यकीनन यह वैश्विक समस्या है और भारत इससे अपने दम पर नहीं निपट सकता। परंतु वह अपने स्तर पर यह सुनिश्चित कर सकता है कि ऐसी विकास परियोजनाएं जो जमीन के इस्तेमाल और जल प्रबंधन में बड़े बदलाव की वजह बनती हैं, उन्हें तैयार करने के पहले इस बात पर पूरा गौर करना चाहिए कि वे प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर क्या असर डालेंगी और वैश्विक तापवृद्धि पर उनका क्या संभावित असर हो सकता है।


उत्तराखंड में बार-बार आ रही आपदाएं इस बात का संकेत हैं कि इस बात की अनदेखी की गई है। जिस स्थान पर उत्तराखंड स्थित है वहां भारतीय टेक्टोनिक प्लेट, यूरोशियन टेक्टोनिक प्लेट के नीचे से गुजरती है और इस पूरे क्षेत्र को भूकंप और भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील बनाती है। यहां कई तीव्र गति वाली नदियां हैं जिनके जल स्रोत हिमालय के ग्लेशियर हैं जिनके अचानक पिघलने से तेज बाढ़ अचानक आ सकती है। निर्णय लेते समय इस बात की अनदेखी की गई और बांधों ने जल के नैसर्गिक प्रभाव को खत्म कर दिया। पहाड़ों पर बनने वाली सड़कों से भूस्खलन बढ़ा क्योंकि वहां काटछांट की गई और अतिक्रमण तथा निर्माण गतिविधि शुरू हो गईं। वैश्विक औसत तापमान बढऩे के साथ ही ऐसी त्रासदियां और बढ़ेंगी। अनुमान है कि हिमालय और तिब्बत क्षेत्र के तापमान में होने वाली वृद्धि वैश्विक औसत से अधिक है। इस क्षेत्र के ग्लेशियरों पर पडऩे वाले असर को लेकर हाल में किए गए एक अध्ययन में कहा गया कि उनके बहाव की धारा बदल रही है जिससे उनके द्वारा निर्मित झीलें टूट रही हैं। इसके चलते भविष्य में बाढ़ आने और पानी की कमी जैसी समस्याएं भी देखने को मिल सकती हैं। जल बहाव के अनिश्चित और तेज हो जाने के कारण ये बदलाव नीचे रहने वाली आबादी और बुनियादी ढांचे को प्रभावित कर सकते हैं। इसमें पनपता जलविद्युत क्षेत्र और दुनिया के कुछ सबसे बड़े सिंचित कृषि तंत्र शामिल हैं।


इन आशंकाओं को देखते हुए हमें परियोजनाएं और नीतियां इस प्रकार बनानी होंगी ताकि भूमि और जल प्रबंधन में जलवायु परिवर्तन के असर का ध्यान रखा जा सके। इनमें से अधिकांश परियोजनाएं बुनियादी ढांचा क्षेत्र की हैं और राज्य सरकारों की निगरानी में हैं।


सबसे जरूरी है कि पर्यावरण मानकों को लेकर निष्पक्ष, विश्वसनीय और समुचित आंकड़े समय पर मिलें। आदर्श स्थिति में तो आंकड़े वैज्ञानिक संस्थाओं मसलन भू-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और जंतु विज्ञान आदि से जुड़े संस्थानों तथा भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान आदि से आने चाहिए। ये वे संस्थान हैं जो परियोजनाओं के डिजाइन और क्रियान्वयन में सीधे शामिल नहीं हैं। ऐसा होने से आंकड़ों में विसंगति और गलत निर्णय का खतरा कम होगा। खेद की बात है कि जमीन और पानी से संबंधित गुणात्मक और मात्रात्मक आंकड़े काफी हद तक ऐसी एजेंसियों से आते हैं जिनके पास नियामकीय और योजना संबंधी दायित्व भी होते हैं। हाल के वर्षों में अंतरिक्ष आयोग की रिमोट सेंसिंग तकनीक ने पर्यावरण आंकड़ों की गुणवत्ता सुधारी है। निष्पक्ष आंकड़ों के तमाम स्रोत मजबूत करने की जरूरत है। इसके साथ ही तमाम विश्वविद्यालयों तथा शोध संस्थानों में जलवायु परिवर्तन पर शोध का विस्तार करने की आवश्यकता है।


बेहतर आंकड़ों के अलावा स्वीकृति के मानकों पर पुनर्विचार करना जरूरी है। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के प्रत्यक्ष लाभ का आकलन करना एकदम स्पष्ट है: सिंचाई परियोजनाओं से उत्पादन बढऩे का मूल्य, जलविद्युत परियोजनाओं की विद्युत आपूर्ति का मूल्य, सड़क परियोजनाओं के कारण लागत और समय में बचत वगैरह। असली चुनौती लागत के मोर्चे पर है जहां अभी भी पुराने तरीके अपनाए जाते हैं जो प्रमुख तौर पर विनिर्माण की लागत पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यहां पर्यावास आधारित रुख आवश्यक है। प्राकृतिक व्यवस्था में इन हस्तक्षेपों के संभावित प्रभाव का नए सिरे से आकलन किया जाना चाहिए और उपयुक्त न पाए जाने पर परियोजना बंद की जानी चाहिए।


बड़ी चुनौती है जल संसाधन प्रबंधन। ऐसी परियोजना जो नदियों के जल बहाव का मार्ग परिवर्तित करती है उसका निचले इलाकों पर असर लाजिमी है। एक नदी सिंचाई, पेयजल, जलविद्युत, जल परिवहन, मत्स्यपालन आदि कई काम करती है। ऐसे में बाढ़ के जोखिम का प्रबंधन, प्रदूषण नियंत्रण और जैवविविधता का संरक्षण जरूरी है। नदी के ये तमाम उपयोग एक दूसरे से संबंधित हैं। सीवेज और औद्योगिक कचरा नदी के पानी के पीने लायक नहीं रहने देता। जलविद्युत निर्माण के लिए पानी को बांध में बांधा जाता है। इससे जल परिवहन बाधित होता है और मत्स्यपालन पर असर पड़ता है। केवल ग्लेशियर के पिघलने से नदी का प्रवाह प्रभावित नहीं होता बल्कि मौसमी बदलाव के कारण कम दिनों में अधिक बारिश भी अचानक बाढ़ की वजह बनती है।


नदी आधारित हर परियोजना को डिजाइन करने और मंजूरी देते समय समूचे नदी बेसिन का ध्यान रखना चाहिए। यह मुश्किल है क्योंकि तमाम बड़ी नदियां कई राज्यों से गुजरती हैं। संविधान का अनुच्छेद 262 संसद को यह अधिकार देता है कि वह अंतरराज्यीय जल विवादों के लिए व्यवस्था बनाए और ऐसा किया भी गया है। हमें विवाद निस्तारण से राज्यों के बीच साझा समझ के साथ निर्णय पर पहुंचने की व्यवस्था बनानी होगी। कावेरी मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इसका आधार हो सकता है। वह निर्णय कहता है कि किसी अंतरराज्यीय नदी का पानी जो कई राज्यों से गुजरता हो वह राष्ट्रीय संपत्ति है और उसे किसी एक राज्य में स्थित नहीं माना जा सकता।


जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलता हासिल करने के मामले में जल संसाधन का प्रबंधन शायद सबसे बड़ी चुनौती है। बुनियादी विकास के ऐसे अन्य क्षेत्र भी हैं जहां पर्यावास तथा जलवायु परिवर्तन के संभावित असर का ध्यान रखना आवश्यक है। पहाड़ी इलाकों में सड़क निर्माण, तटवर्ती इलाकों में शहरी निर्माण, पानी की कमी वाले इलाकों में जमीन के इस्तेमाल की परियोजनाएं कुछ उदाहरण हैं जहां निर्माण लागत से परे जाकर जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में पर्यावास प्रभाव पर नजर डालना आवश्यक है।


जलवायु परिवर्तन की गति, हमारे पर्यावास में बदलाव की गति से जुड़ी हुई है और यह हमारे पिछले अनुभवों से कहीं अधिक है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पर्यावास में आने वाले बदलाव को हमारे संस्थान और नीतियां कितनी तेजी से अपनाते हैं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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