टीकों के मूल्य नियंत्रण से कमजोर होगी पहुंच (बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजय शाह  

देश में व्यापक टीकाकरण की शुरुआत हो चुकी है। निजी स्वास्थ्य सेवा कंपनियों को इसके लिए आम जनता तक पहुंचना होगा। आर्थिक नीति का एक बुनियादी तत्त्व यह है कि मूल्य नियंत्रण अच्छी तरह काम नहीं करता। यदि कीमत नियंत्रित की जाएगी तो इससे निजी क्षेत्र की पहुंच शहरों तक सिमट जाएगी। हमारा अनुभव एक समरूप समस्या का उदाहरण पेश करता है जहां देश के दूरदराज इलाकों तक पहुंच बनाने के लिए कीमतों का बाजार द्वारा निर्धारित होना आवश्यक है। सरकार को कम कदम उठाने चाहिए और बाजार को अपने तरीके से काम करते हुए समस्या से निपटने देना चाहिए। यदि हस्तक्षेप की इच्छा हो तो वैक्सीन वाउचर इसका सबसे अच्छा तरीका हैं।

फरवरी के अंत तक देश में दो करोड़ लोगों को टीका लग चुका था। यह संचारी रोग नियंत्रण की विजय है। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक साल के भीरत एक नए वायरस से निपटने के लिए व्यापक तौर पर टीकाकरण आरंभ हो गया हो। सच तो यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी टीका निर्माता कंपनी भारत की एक निजी कंपनी है जिसका नाम है सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया प्राइवेट लिमिटेड। यह अब हर भारतीय के लिए गौरव का विषय है। टीकाकरण से न केवल बीमारी का बोझ कम करने में मदद मिलती है बल्कि टीका लगवा चुके लोग लंबा जीवन जीते हुए अर्थव्यवस्था और समाज में स्थिति सामान्य करने में मदद करते हैं।


यदि 15 लाख लोगों को रोजाना टीका लगाने की मौजूदा दर बरकरार रहती है तो एक अरब लोगों को टीका लगाने में 666 दिन लगेंगे। यदि गति तेज होती है तो और अच्छा होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था की हालत सामान्य करने में हर दिन की कमी अहम है। टीकाकरण का मौजूदा कार्यक्रम शहरों में बड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित है। ऐसे में आगे चलकर गति धीमी हो सकती है।


देश की स्वास्थ्य सेवाओं का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र के हाथ में है। कोविड-19 के मामले में हर कदम पर यानी पीपीई किट, जांच, दवा आदि के क्षेत्र में हमने देखा कि कैसे काम करने की पूरी छूट मिलने पर निजी क्षेत्र ने जबरदस्त प्रदर्शन किया। निजी औषधि कंपनियां, जांच लैब, चिकित्सक और अस्पताल आदि पूरे देश में हैं और वे टीकाकरण की दर को 10 गुना तक बढ़ा सकते हैं। कुछ लोग निजी क्षेत्र की कीमतों को लेकर चिंतित हैं और मूल्य नियंत्रण की बात भी चल रही है।


आर्थिक विचार की बुनियाद से हम जानते हैं कि मूल्य नियंत्रण कभी भी समस्या का हल नहीं होता है। ऊंची कीमतें अधिक उत्पादन को प्रोत्साहन देती हैं और खपत कम होती है। इसका उलटा भी इतना ही सच है। बाजार कमी को कीमतों में बदलाव की वजह बनाता है और कीमतों में उतार-चढ़ाव से लोगों के व्यवहार में परिवर्तन आता है। कीमतें एक प्रकार की सूचना प्रणाली हैं: कीमतों में उतार-चढ़ाव खरीदारों और विक्रेताओं को जो संदेश देता है, वे उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं। यदि राज्य अपनी शक्ति का प्रयोग कर इन संकेतों को रोक देगा तो खरीदारों और विक्रेताओं दोनों को मुश्किल होगी। इससे समस्या को हल करना कठिन हो जाएगा। सन 1990 के दशक के आखिरी दिनों का एक किस्सा हमें टीकों के मूल्य नियंत्रण के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। भारत में डीमैट सिक्युरिटीज सेटलमेंट की शुरुआत 1990 के दशक के आखिर में हुई और एनएसडीएल ने बहुत कम कीमत पर इसकी थोक सेवा शुरू की। इसके बाद उपभोक्ताओं तक पहुंच बनाने वाली कई कंपनियां (डीपी) देश भर में लोगों को ये सेवाएं बेचती हैं।


सन 1990 के दशक के आखिर में कीमतों पर नियंत्रण का हो हल्ला था। ऐसे प्रस्ताव भी आए कि सरकार या एनएसडीएल को उस कीमत को नियंत्रित करना चाहिए जो डीपी ग्राहकों से वसूल करती हैं। यह भी कहा गया कि यदि कीमतों पर नियंत्रण नहीं किया गया तो ये डीपी गरीबों और वंचितों के काम नहीं आएंगी।


एनएसडीएल में सीबी भावे तथा अन्य लोगों ने दलील दी कि डीपी के कारोबार में कोई नाकामी नहीं देखने को मिली। मुंबई जैसी जगहों पर डीपी सेवाओं की लागत कम थी क्योंकि वहां कुशल श्रमिकों का श्रम मूल्य अलग था, दूरसंचार और बिजली की व्यवस्था काफी विश्वसनीय थी। इसके अलावा वहां इनके ग्राहकों की तादाद भी काफी अधिक थी। यही वजह थी कि दक्षिण मुंबई में ग्राहकों द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत अनिवार्य तौर पर कम होनी ही थी। दूरदराज इलाकों में इन सेवाओं की लागत अधिक थी और ग्राहकों की तादाद भी काफी कम थी। ऐसे में वहां सेवा पहुंचाने की लागत भी अधिक थी। यदि मूल्य नियंत्रण किया जाता तो डीपी उन इलाकों में सेवा नहीं देने का निर्णय करतीं और डीपी सेवाएं शहरों तक सीमित रह जातीं।


दूरदराज इलाकों में यदि डीपी अधिक शुल्क वसूल करती हैं और बेहतर रिटर्न हासिल करती हैं तो इससे अन्य कंपनियों को प्रतिस्पर्धी कारोबार शुरू करने की प्रेरणा मिलती है क्योंकि वहां कारोबार में प्रवेश करने को लेकर कोई गतिरोध नहीं होता। निजी क्षेत्र नवाचार करता है और लागत कम करता है।


ऐसे में हस्तक्षेप न करने के अच्छे परिणाम सामने आते हैं। डीपी जो कीमत वसूल करती हैं उसे बाजार पर छोड़ दिया जाता है। प्रतिस्पर्धा पैदा होती है और तब कीमतों में स्वत: गिरावट भी आती है। कारोबारी दृष्टि से आसान माने जाने वाले शहरी इलाकों में प्रतिस्पर्धा ने मुनाफे को प्रभावित किया और डीपी को दूरदराज इलाकों में कारोबार करने का अवसर मिला और वे लाभान्वित हुईं।


यह कहानी हमें टीकों और मूल्य नियंत्रण के बारे में समझ विकसित करने में मदद करती है। निजी क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर टीकाकरण की क्षमता है। निजी व्यक्तियों के लिए किसी बड़े शहर के आवासीय परिसर में रविवार को शिविर लगाना आसान है। दूरदराज इलाकों में टीके को जरूरत के मुताबिक ठंडा रखना और कम आबादी वाले इलाकों में कुशल लोगों की सेवा पाना आसान नहीं है। यदि मूल्य नियंत्रण किया गया तो देश के ग्रामीण इलाकों को नुकसान होगा।


निजी क्षेत्र नवाचार करेगा। उदाहरण के लिए जॉनसनऐंडजॉनसन का एक खुराक वाला टीका एस्ट्राजेनेका के उस टीके से महंगा है जिसे अभी सीरम इंस्टीट्यूट बेच रही है। लेकिन दो खुराक वाले टीके की लागत और जटिलताएं अधिक हैं। खासकर दूरदराज इलाकों को देखें तो यकीनन ऐसा है। निजी क्षेत्र की कुछ स्वास्थ्य कंपनियों को शायद जॉनसनऐंडजॉनसन का टीका आयात करना और दूरदराज इलाकों में लगाना अनुकूल लगे।


सार्वजनिक नीति में कीमतों में हस्तक्षेप न करने की नीति पेशेवर क्षमता का प्रतीक है। यदि गरीबी की समस्या है तो टीके के लिए वाउचर जारी किए जा सकते हैं जहां सरकार टीका लगाने वाली कंपनियों को भुगतान करे।

(लेखक स्वतंत्र आर्थिक विश्लेषक हैं)


सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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