सामयिक: विकास की रफ्तार का दारोमदार महिलाओं पर (पत्रिका)

महेश व्यास

आर्थिक विकास तभी फलीभूत होता है जब ज्यादातर परिवार गुणवत्तापूर्ण जीवन जी रहे हों। असमानता केवल अवांछित ही नहीं होती बल्कि यह सतत विकास की राह में भी बाधक है। ज्यादातर भारतीयों ने 1991 के उदारीकरण के बाद अपने जीवन की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार देखा। अब भारतीय पहले के मुकाबले अच्छा खाते-पीते हैं, ज्यादा अच्छे कपड़े पहनते हैं, बेहतर शिक्षा पाते हैं और दूर-दराज तक की यात्राएं करते हैं। कारों और दुपहिया वाहनों ने आवागमन को आसान बना दिया है। कह सकते हैं कि 70 के दशक तक ऐसा नहीं था। आज देश के हर नागरिक के पास मोबाइल फोन है और खाने के लिए बाहर जाना आम बात है। लाखों उद्योगपतियों के संभावनाओं भरे बाजारों की मांग और उनमें वस्तुओं व सेवाओं की आपूर्ति न्यायसंगत विकास की राह खोलती है। महिलाओं की शक्ति अब भारत के विकास का अगला बड़ा इंजन साबित होगी, क्योंकि भारतीय महिलाओं को अभी तक समग्र रूप से कम अवसर मिले हैं और उनकी आर्थिक क्षमता गंभीर रूप से कमतर आंकी गई है।

सत्तर के दशक में ज्यादातर लोग पैदल या साइकिल पर सवार हो लंबी दूरी तय कर ऑफिस जाते थे। आज आवागमन के बेहतर साधन मौजूद हैं, जिससे कामकाजी वर्ग के लिए जीवन की गुणवत्ता बेहतर हुई है।  कामकाज की गुणवत्ता भी सुधरी है। मशीनों ने उत्पादकता बढ़ा दी है। इन सुधारों का ज्यादातर लाभ पुरुषों को मिला है। भारतीय महिलाएं आम तौर पर कार्यबल का हिस्सा नहीं है। कन्ज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे के अनुसार, 14 साल से अधिक उम्र के 67 प्रतिशत पुरुषों के पास 2019-20 में रोजगार था, जबकि 14 वर्ष से अधिक उम्र की केवल 9 प्रतिशत महिलाएं ही इस अवधि में कामकाजी वर्ग का हिस्सा थीं। भारतीय महिलाओं की क्षमताएं घरेलू कामकाज तक सिमट कर रह गई हैं। इस कामकाज की दक्षता में बहुत सुधार नहीं हुआ है। वाशिंग मशीनों का इस्तेमाल अब धीरे-धीरे बढ़ रहा है। आटा गूंथने की मशीनें अब भी ज्यादातर घरों में नहीं हैं। जयपुर के मुकाबले सिंगापुर में ये सुविधाएं आसानी से मिल जाएंगी। अमरीका के हर घर में कॉफी मशीन मिल जाएगी, लेकिन यहां दिनभर चाय बनाने की जिम्मेदारी महिलाओं की है? श्रम का यह असमान विभाजन क्यों? इसे बदलने पर विचार क्यों नहीं?

विश्व में 47 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं रोजगार की तलाश में हैं, जबकि बांग्लादेश में 33 प्रतिशत फीसदी। तकनीकी भाषा में इसे श्रम भागीदारी दर कहते हैं। भारत में यह दर मात्र 11 प्रतिशत ही क्यों? सरकार इस दर के 24 प्रतिशत होने का दावा करती है, तब भी यह दुनिया में सबसे निचले स्तर में शामिल है। श्रम बाजार में भारत में लैंगिक असमानता बड़ी समस्या है। महिलाएं, पुरुषों के समान शिक्षित हैं, इसके बावजूद घर से बाहर निकल कर काम करने वाली महिलाओं की संख्या कम है। 2019-20 में जहां पुरुषों में बेरोजगारी की दर 6.3 प्रतिशत थी, वहीं महिलाओं में यह 17.5 म रही। शहरी महिलाओं के लिहाज से यह संख्या 24.5 प्रतिशत रही। यह भेदभाव भारत के विकास में बाधक है। पुरुषों की श्रमबल में भागीदारी दर 71 प्रतिशत है, जिसके बढऩे की गुंजाइश बहुत कम है।  वैश्विक औसत 74 प्रतिशत है। इसलिए सतत विकास के लिए जरूरी है कि महिलाओं को श्रम शक्ति में बराबरी का स्थान मिले। जाहिर है कि भारत का भविष्य घरों के कामकाज को सुगम बनाने, घर की जिम्मेदारियां बराबर बांटने और कामकाजी वर्ग में महिलाओं की भागीदारी में बढ़ोतरी पर टिका है।
(लेखक, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सीईओ हैं)

सौजन्य - पत्रिका।
Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment