बैंक निजीकरण प्रक्रिया में कैसे मिलेगी सफलता (बिजनेस स्टैंडर्ड)

टीटी राममोहन  

यह कहा जा सकता है कि अगले वित्त वर्ष में दो सरकारी बैंकों के निजीकरण की दिशा में आगे बढऩे के पहले बेहतर यही होगा कि बैंक संचालन से संबंधित पी जे नायक समिति (2014) के प्रस्तावों पर ध्यान दिया जाए।

समिति ने एक ऐसी बैंक होल्डिंग कंपनी का प्रस्ताव रखा था जिसे पेशेवर चलाएं। सरकारी बैंकों के शेयर इसे हस्तांतरित किए जाएं। ऐसा न होना था, न हुआ। बैंकिंग तंत्र के 60 फीसदी शेयर 'स्वतंत्र' पेशेवरों को हस्तांतरित करने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता। यदि सरकार का इरादा इन बैंकों को स्वायत्तता देना चाहती है तो वह काम आज भी हो सकता है। यदि वह ऐसा नहीं करती तो बैंक होल्डिंग कंपनी बनाने का भी कोई फायदा नहीं।


सरकारी बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करके उनके वेतन भत्ते निजी क्षेत्र के समान बनाने का विचार भी काल्पनिक है। कोई सरकारी संस्थान निजी क्षेत्र के समान वेतन भत्ते नहीं दे सकता। सरकारी क्षेत्र बेहतर प्रोत्साहन अवश्य दे सकता है लेकिन ये कभी निजी क्षेत्र का मुकाबला नहीं कर सकते।


सरकारी और निजी क्षेत्र दो अलहदा कारोबारी मॉडल हैं। एक ऊंचा वेतन देता है, वहां पदोन्नति की संभावना ज्यादा होती है और काम का दबाव भी। जबकि दूसरा रोजगार की सुरक्षा, ढेरों चुनौतियां, बढिय़ा आवास और कम नकद वेतन देता है। यह मामला दो अलग जीवनशैलियों का है। दो मॉडलों में से चयन करना और उन्हें मिलाना हमें कहीं नहीं ले जाएगा।


यदि सरकारी बैंकों की तादाद कम करनी है तो बेहतर है उन बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। तब सरकार बैंक के प्रदर्शन के लिए जवाबदेह नहीं रह जाएगी। कुछ बैंकों के साथ प्रायोगिक शुरुआत करना उचित होगा। हमें ऐसे बैंकों के प्रदर्शन पर सावधानी से नजर रखनी होगी। अन्य बैंकों के निजीकरण के पहले तीन-चार साल प्रतीक्षा करनी चाहिए। दो सरकारी बैंकों   का निजीकरण भी बड़ी चुनौती है। बड़ा सवाल यह है कि सरकार ये बैंक किसे बेचेगी? देश में बड़े निजी बैंकों की अखिल भारतीय उपस्थिति है। वे शायद ही अलग कार्य संस्कृति और विरासत वाले सरकारी बैंक को लेना चाहें।


विदेशी बैंक हाल के वर्षों में भारत में अपना कारोबार कम कर रहे हैं। खासकर खुदरा कारोबार। ऐसे में देखना होगा कि रिजर्व बैंक के कड़े मानकों के अधीन कितने बैंक भारतीय बाजार में एक अनुषंगी तैयार करने की इच्छा रखते हैं। अब बचे संस्थागत विदेशी निवेशक। नायक समिति ने ऐक्सिस बैंक को सरकारी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करने के आदर्श के रूप में पेश किया है। आज ऐक्सिस बैंक के सामने जो समस्याएं हैं उनकी अनदेखी कर दें तो बैंक ने जो सफलताएं हासिल की हैं वे केवल सरकार की अंशधारिता 50 फीसदी से कम करने की वजह से नहीं हैं। ऐक्सिस बैंक की शुरुआत यूटीआई बैंक के रूप में हुई थी जो एक सरकारी संस्था था। सरकार की अंशधारिता 50 फीसदी से कम होने के बाद भी एलआईसी तथा अन्य सरकारी संस्थाओं की इसमें अहम हिस्सेदारी रही और अब भी है। यूटीआई बैंक के निजीकरण के समय आकार बहुत छोटा था। आज सभी सरकारी बैंकों का आकार काफी बड़ा है।


हमें ऐसे निवेशक चाहिए जो निजी बैंक की सक्रिय निगरानी करें। ऐसे में निजी इक्विटी फर्म उचित विकल्प हैं। बैंक स्वामित्व की समीक्षा करने वाले आरबीआई के आंतरिक कार्य समूह ने अनुशंसा की है कि गैर प्रवर्तक अंशधारिता को बढ़ाकर 15 प्रतिशत किया जाए। इसका इरादा यकीनन निजी इक्विटी फर्म जैसे निवेशकों को अहम हिस्सेदारी सौंपना था। इसे बैंक निजीकरण की पूर्व शर्त के रूप में देखा जाना चाहिए।


कुछ अन्य उपायों को भी ऐसे ही देखना होगा। सरकारी और निजी बैंकों के समर्थन से परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी (एआरसी) की स्थापना का निर्णय भी ऐसा ही एक उपाय है। पहले यह प्रस्ताव परवान नहीं चढ़ सका क्योंकि यह स्पष्ट नहीं था कि आखिर क्यों सरकारी स्वामित्व वाली एआरसी बैंक समूह की तुलना में पुनर्गठन का काम बेहतर कैसे करेंगी? चीजें अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। इस तरह वे निजी क्षेत्र के लिए अधिक आकर्षक होंगी। निजी बैंकों को सरकारी कारोबार संभालने देने पर भी यही बात लागू होती है।


इसके बावजूद कई चुनौतियां बरकरार हैं। सरकारी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करने का जमाकर्ताओं पर पडऩे वाला प्रभाव भी इसका उदाहरण है। सरकारी बैंकों के पास बहुत अधिक तादाद में सरकारी जमीन है, उससे निपटना एक अलग मसला है। इनमें बैंकों के मुख्यालय, क्षेत्रीय कार्यालय, प्रशिक्षण केंद्र और कर्मचारियों के आवास शामिल हैं। निजी निवेशक शायद इनके लिए पैसे न चुकाना चाहें। वे शाखाओं के नेटवर्क में अधिक रुचि रखेंगे। एयर इंडिया की तरह कुछ जमीन और इमारतों को स्पेशल पर्पज व्हीकल के हवाले करना उचित रहेगा।


निजी निवेशक शाखाओं को तार्किक बनाना चाहेंगे और कर्मचारियों की तादाद में कमी करना भी। मीडिया खबरों के अनुसार ऐसे कदम उठाए जाने हैं जिनमें निजीकृत किए जाने वाले सरकारी बैंकों के कुछ कर्मचारियों को अन्य बैकों में स्थानांतरित किया जाए। फंसे कर्ज का एक हिस्सा बही खातों से कम होने, कर्मचरियों की तादाद घटने और जमीन को स्पेशल पर्पज व्हीकल को स्थानांतरित करने से बैंक का मूल्यांकन आसान हो सकता है। परंतु इससे यह सुनिश्चित नहीं होता कि कोई विवाद नहीं होगा। अधिकांश सरकारी बैंकों का मूल्य उनके बहीखातों की तुलना में कम है। उचित मूल्यांकन के लिए प्रतिस्पर्धी नीलामी प्रक्रिया अपनानी होगी जहां ढेर सारे बोलीकर्ता हों। परंतु उपरोक्त वजहों से संभावित बोलीकर्ता बहुत कम हैं।


बैंक यूनियनों का विरोध एक और चुनौती है। बैंक यूनियन पहले ही दो दिवसीय हड़ताल कर चुके हैं। सरकार को कुछ ऐसे कदम उठाने चाहिए ताकि किसानों के साथ हुए विवाद जैसी स्थिति न बने। पहला, उसे बैंक यूनियनों को समझाना चाहिए कि सरकार की मंशा उन सरकारी बैंकों को मजबूत बनाने की है जिनका निजीकरण नहीं हुआ है। वह सरकारी क्षेत्र को खत्म करना नहीं चाहती। वह यूनियनों को आश्वस्त कर सकती है कि अगले तीन साल में सरकारी बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम नहीं की जाएगी। दूसरा, उसे यूनियनों को आश्वस्त करना चाहिए कि निजीकृत बैंक में भी कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखा जाएगा।


तीसरा, सरकार को दो सरकारी बैंकों की बिक्री से मिली पूंजी का इस्तेमाल शेष बैंकों को बेहतर बनाने में करना चाहिए। कुछ सरकारी बैंकों में पूंजी बढ़ाने से उनका मूल्यांकन सुधरेगा और ऋण में इजाफा होगा। निजीकरण से हासिल राशि का निवेश बाकी बचे सरकारी बैंकों में करने से सरकार को कम समय में सकारात्मक नतीजे हासिल होंगे। बैंक निजीकरण के मसले पर यही सबसे बेहतर राह होगी।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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