आलोचना करनी है तो नीतियों की करें टीका कंपनियों की नहीं ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

मिहिर शर्मा 

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महीनों की देर से ही सही लेकिन टीकों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए जरूरी कदम उठाए हैं। गत सप्ताह उसने तीसरे चरण के टीकाकरण के लिए नए नियम घोषित किए और टीकों के लिए निजी बाजार खोल दिया गया। राज्य सरकारों को सीधे टीके खरीदने की अनुमति दी गई और 18 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को भी मौजूदा केंद्र की निगरानी वाली प्रणाली से परे जाकर विभिन्न स्थानों से टीका लगवाने की इजाजत दी गई। ऐसे लोगों के लिए कुल खरीदे गए टीकों में से आधे आरक्षित होंगे और इनके लिए वह रियायती कीमत चुकानी होगी जिस पर सरकार और दो टीका उत्पादकों भारत बायोटेक तथा सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के बीच सहमति बनी थी। 45 से अधिक आयु के  लोगों के टीकाकरण के लिए पहले वाली व्यवस्था बरकरार रहेगी। इस बीच दोनों टीका निर्माताओं ने कीमतें घोषित कर दी हैं। ऑक्सफर्ड का टीका कोविशील्ड केंद्र सरकार को प्रति खुराक 150 रुपये की दर पर टीका मिलना जारी रहेगा वहीं राज्य सरकारों को यह 400 रुपये प्रति खुराक और निजी बाजार को 600 रुपये प्रति खुराक पर दिया जाएगा। भारत बायोटेक की कोवैक्सीन राज्यों को 600 रुपये और निजी अस्पतालों को 1,200 रुपये प्रति खुराक पर मिलेगी। दुख की बात है कि महामारी की दूसरी लहर ने देश भर में विस्फोटक रूप ले लिया। दिल्ली समेत देश के तमाम राज्य इसकी चपेट में हैं। बहरहाल नए घटनाक्रम के बाद मुख्य विपक्षी दल समेत कई अंशधारकों ने कीमत में बढ़ोतरी की आलोचना भी की है।


यह मानने की पर्याप्त वजह है कि राज्यों के लिए टीके की खुली खरीद का विकल्प एक चतुराई भरा राजनीतिक कदम है। कोविड की दूसरी लहर का ठीकरा केंद्र सरकार राज्यों पर फोडऩा चाहती है। आगे वह यह भी कह सकती है कि टीका न खरीदने वाली राज्य सरकारें समस्या हैं। ऐसा करके वह टीकाकरण को लेकर अपनी जवाबदेही से बच जाएगी। इस बीच संघीय तनाव बढ़ेगा। कुछ राज्यों को आर्थिक तंगी होगी। उनके पास केंद्र की तरह पूंजी बाजार से धन जुटाने का विकल्प भी नहीं है। अन्य राज्यों टीका उत्पादकों पर जोर आजमाइश करेंगे तो वहीं टीकों के परिवहन को बाधित भी किया जा सकता है। ऑक्सीजन के मामले में ऐसी अराजकता देखी भी जा रही है। केंद्र सरकार भी ऐसा होने दे रही है। बेहतर तो यही होता कि ऊंची कीमत पर भी केंद्र स्वयं टीके खरीदता और अतिरिक्त राशि का व्यय को राज्यों के बीच पारदर्शी ढंग से बांट देता। फिलहाल तो यह राजनीतिक मसला ही लग रहा है। दुख की बात है कि महामारी के इस दौर में भी ऐसे आकलन नीतियों को प्रभावित कर रहे हैं।


ऐसे में विपक्षी दल और अन्य लोग निजी बाजार के खिलाफ जो दलील दे रहे हैं वह भी सही नहीं लगती। कई लोगों की दलील है कि अनेक अन्य देशों में टीके निजी बाजार के लिए उपलब्ध नहीं हैं और वहां टीके नि:शुल्क हैं। परंतु ये दलील भारत में लागू नहीं होती। यदि सरकार ने शुरुआत में ही पर्याप्त भुगतान किया होता या गंभीरता से अग्रिम खरीद अनुबंध किए होते तो विकसित देशों की तरह हमारे यहां भी पर्याप्त नि:शुल्क टीके उपलब्ध होते। वह अवसर अब निकल चुका है। दूसरी दिक्कत यह है कि सरकार की टीकाकरण क्षमता का पूरक तैयार करने के लिए आकर्षक निजी बाजार तैयार करना आवश्यक है। तंत्र पर बहुत दबाव है और निजी क्षेत्र को आगे आना ही होगा। वह ऐसा तभी करेगा जब यह सुनिश्चित हो कि उसे आर्थिक नुकसान नहीं होगा। दूसरे शब्दों में उपयुक्त और मुनाफे वाली कीमत तय की जानी चाहिए। यही हुआ है।


मौजूदा हालात में यह दलील उचित नहीं कि निजी उत्पादक कीमतों के भूखे हैं। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) ने पहले ही परीक्षणाधीन टीके में आरंभ में काफी निवेश किया। उसने शुरू से कहा कि जब भी वह उत्पादन बढ़ाएगी वह उसके एक हिस्से से मार्जिन बढ़ाना चाहेगी। निजी बाजार के लिए 600 रुपये प्रति खुराक की कीमत पहले जताए अनुमान से काफी कम है। आलोचना का एक हिस्सा राजनीतिक है जो बीते वर्षों में बनाई गई उस अवधारणा पर आधारित हे कि सरकार निजी पूंजीपतियों के करीब है। इस मामले में ऐसी धारणा टीकाकरण के प्रयास को कठिन बना सकती है। दुनिया भर में एस्ट्राजेनेका के टीके पर हो रहे हमलों को याद कीजिए। जबकि कंपनी ने समुचित परीक्षण किए हैं और उसे ऑक्सफर्ड का टीका बनाने का लाइसेंस हासिल है।


कंपनी कह चुकी है कि वह महामारी के दौरान टीके से मुनाफा नहीं कमाएगी और विकासशील देशों में उत्पादन बढ़ाएगी। टीकाकरण की गति भले ही धीमी है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इसकी विशेषज्ञता अहम है। बहरहाल कंपनी को काफी नुकसान पहुंचा है। ब्लूमबर्ग की एक खबर के मुताबिक एस्ट्राजेनेका में कई लोग इस आलोचना से निराश हैं लेकिन कपनी बिना मुनाफे वाले टीके की मदद से महामारी से निपटने में लगी है। महामारी के बीच कंपनी पर ऐसे आरोप बहुत निराश करने वाले हैं।


निजी क्षेत्र कभी भी सहानुभूति कारक नहीं रहा। खासकर ऐसे वक्त जब राष्ट्रीय और वैश्विक एकता की आवश्यकता है। यह भी सही है कि भारत में न सही लेकिन दुनिया के कई हिस्सो में शोध में सार्वजनिक निवेश ने टीका निर्माण में मदद की। परंतु जहां सरकारें कमजोर हैं, संसाधन सीमित हैं या नदारद हैं वहां निजी क्षेत्र की भूमिका अहम है। यदि निजी क्षेत्र को अपमानित किया गया या उसे उचित प्रतिफल से वंचित किया गया तो यह सहयोग विकसित नहीं होगा। सरकार को टीकों को निजी बाजार में उतारने के निर्णय का बचाव करना चाहिए और अन्य टीका उत्पादकों को भी आश्वस्त करना चाहिए कि वह उनका भी बचाव करेगी। टीकों तक पहुंच की आलोचना करते हुए कंपनियों को निशाना नहीं बनाना चाहिए बल्कि नीति निर्माताओं को कठघरे में खड़ा करना चाहिए जो समय पर निर्णय लेने में नाकाम रहे। समय पर लिया गया निर्णय देशव्यापी स्तर पर और सस्ती दर पर टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करता।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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