क्या परीक्षाएं संभव हैंॽ (राष्ट्रीय सहारा)

कोरोना के बढ़ते प्रकोप में परीक्षा का सवाल एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ है। अप्रैल माह में बोर्ड परीक्षाओं सहित अनेक प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन होता है। इन आयोजनों को तात्कालिक रूप से टाला जा रहा है। वर्तमान में इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। इस विकल्प को स्वीकार करने के साथ ही शिक्षक‚ विद्यार्थी और शिक्षा तंत्र से जुड़े लोगों के बीच चर्चा हैं कि बच्चों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भविष्य में परीक्षाएं हों या न हों। 


 जब हम परीक्षाओं के लिए ‘ना' कहते हैं‚ तो आने वाले वषाç में बिना ‘मार्कशीट' वाले विद्यार्थी किन समस्याओं से जूझेंगे‚ इस सवाल को संज्ञान में नहीं लेते। जब परीक्षा को अनिवार्य मानते हैं‚ तो तात्कालिक आपदा में बच्चों के जोखिम का आकलन नहीं करते। ‘हां' या ‘ना' के बीच हमें परीक्षा की प्रकृति के सापेक्ष उन विकल्पों पर विचार करना है‚ जो सीखने के लिए आकलन में हमारी मदद कर सकें। हमारी शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा परिणाम तुलना एवं चयन के आधार बनते हैं। इनमें भी हमारा भरोसा केवल सत्रांत परीक्षा पर होता है। 


इनके आधार पर केवल अगले शिक्षा स्तर में प्रवेश ही नहीं दिया जाता‚ बल्कि ये परीक्षा परिणाम प्रत्येक विद्यार्थी के आने वाले १० से १५ वषाç में बार–बार उसके प्रदर्शन की कसौटी बनकर उपस्थित होते हैं। परीक्षा परिणामों के आधार पर लगभग ५ वषाç के दौरान उत्तीर्ण हुए हमउम्र साथियों के बीच की तुलना‚ विशेष रूप से नौकरी के लिए‚ की जाती है। इन सच्चाइयों के कारण ही सीखने की प्रक्रिया के स्थान पर ‘अंक पत्र' ही हमारे लिए सबसे मूल्यवान बन जाते हैं। यह विश्वास ही परीक्षा की उस प्रक्रिया और संरचना को जन्म देता है‚ जो समस्यामूलक है। आपदाकाल में देखें तो परीक्षा की यही प्रकृति मूल बाधा है। शिक्षा का एक लIय मूल्यों का पोषण करना भी है। 


इसके विपरीत हमारी परीक्षा व्यवस्था मूल्यविहीन अध्यापक‚ विद्यार्थी और अभिभावक की मान्यता पर टिकी है। जिस ढंग से सत्रांत परीक्षाओं का आयोजन होता है‚ उससे पता चलता है कि ये सभी भागीदार ईमानदारी के साथ मूल्यांकन कार्य में सहयोग नहीं करेंगे। नकल करना–करवाना‚ पक्षपात करना‚ अधिक अंक के लिए दबाव बनाने आदि के संशय को दूर करने के लिए हमारा परीक्षा तंत्र खड़ा हुआ है। वैसे तो इस तंत्र में प्रत्येक परीक्षार्थी स्वयं ही प्रश्न पत्र को हल करता है। यह कोई सहभागी कार्य नहीं होता। लेकिन ‘परीक्षार्थी' इतना संदिग्ध होता है कि एक केंद्र पर बड़ी संख्या में एकत्रित होकर वयस्कों सहित कैमरे की निगरानी में वे परीक्षा देते हैं। वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए शिक्षक मूल्यांकन केंद्रों पर एकत्रित होते हैं। 


 परीक्षा की यह संरचना कोरोनाकाल में सुरक्षा के मानकों एवं व्यवहारों से मेल नहीं खाती। आपदा काल में बच्चों की सुरक्षा के लिए अपरिहार्य है कि वे एक बड़े केंद्र पर सामूहिक रूप से एकत्रित न हों‚ केंद्र तक आने–जाने के लिए कोई यात्रा न करें आदि। परीक्षा की वर्तमान संरचना और तंत्र यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहे। आपदा काल में परीक्षा तंत्र की सख्ती और कठोरता ने परीक्षा को तनाव का पर्याय बना दिया है। हर हितचिंतक इस दुविधा में रहा कि परीक्षा हो या न होॽ वर्तमान आपदाकाल में ‘परीक्षा' पर विचार करने की अनिवार्य शर्त है कि हम शिक्षक‚ विद्यार्थी और अभिभावक मूल्यविहीनता के प्रचलित ठप्पे के स्थान पर वायदा करें कि हम ईमानदारी के साथ परीक्षा के भागीदार बनें। आपदा काल में परीक्षा की समस्या का यह पहला समाधान होगा। पुनःश्च हम अपने शिक्षण शास्त्रीयज्ञान‚ प्रौद्योगिकी और नवाचार के माध्यम से परीक्षा की संरचनागत सीमाओं का विकल्प खोज सकते हैं। 


परीक्षा की विश्वसनीयता एवं वैधता को सुनिश्चित करने के लिए बाह्य कसौटियों जैसे–केंद्र पर उपस्थिति की अनिवार्यता‚ मूल्यांकन के लिए शिक्षकों की उपस्थिति आदि की बाधाओं को तोड़ने के लिए विद्यार्थी‚ शिक्षक और अभिभावक की भूमिका में परिवर्तन करना होगा। परीक्षा के संचालन को इतना विकेंद्रित करना होगा कि परीक्षार्थी अपने घर से ही परीक्षा दे सकें। उनके शिक्षक ‘सतत एवं व्यापक मूल्यांकन' के मॉडल द्वारा विद्याÌथयों के प्रदर्शन के वास्तविक आंकड़े उपलब्ध कराएं। इससे बाह्य परीक्षा की आवृत्ति और अवधि‚ दोनों को कम किया जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए ऑनलाइन परीक्षा का विकल्प भी अपनाया जा सकता है। इस विकल्प के साथ दो चुनौतियां हैं। पहली‚ संसाधनों की उपलब्धता और दूसरी‚ ‘डिजिटल डिवाइड' के प्रभाव से परीक्षा को मुक्त रखना। इसके लिए संसाधनों की उपलब्धता और उनके प्रयोग के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करना होगा। लोकवस्तु के रूप में शिक्षा के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के संसाधनों को जन–जन तक पहुंचाए बिना यह विकल्प मध्यमवर्गीय परिवार एवं नगरीय केंद्रों तक ही प्रभावी होगा। ‘आपदाकाल में अपरिहार्य खर्च' के रूप में सरकार को इसे वहन करना होगा। 


 इसके साथ–साथ हमें आकलन के तरीकों एवं उपकरणों में विविधता और उनकी समतुल्यता पर भी विचार करना होगा। ध्यान रखना होगा कि दूरदराज के कस्बाई विद्यालयों‚ जो कोरोना के प्रभाव से अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं‚ में आकलन और मुंबई‚ दिल्ली और लखनऊ जैसे कोरोना से अति प्रभावित क्षेत्रों के विद्यालयों में आकलन एक समान नहीं हो सकता। इस विषमता के बीच शिक्षक ऐसे कर्ता के रूप में हैं‚ जो हमारी मदद कर सकते हैं। विद्याÌथयों और अभिभावकों के सहयोग से आकलन के स्थानीय और सांदÌभक तरीकों का प्रयोग कर सकते हैं। इसके आधार पर विद्याÌथयों के अंकों या ग्रेडों को निर्धारित कर सकते हैं। इस स्थिति में आकलन में विचलन बहुत अधिक होगा। इसके लिए सांख्यिकीय स्तर पर सापेक्षिक आकलन के लिए नये मापकों का प्रयोग एक उपाय हो सकता है। इस तरीके में आंतरिक मूल्यांकन का हिस्सा बढ़ाते हुए विद्याÌथयों के प्रदर्शन से जुड़े प्रमाणों को एकत्रित किया जा सकता है। ॥ हमें ध्यान रखना होगा कि परीक्षा‚ कोरोना आपदा के दौरान विद्याÌथयों ने जो सीखा है‚ उसका सकारात्मक फीडबैक देने की प्रणाली हो। यह ‘अंतिम फैसला' देने की परीक्षा न होकर उनकी उपलब्धियों और इसके आधार पर मार्गदर्शन की व्यवस्था बने। सत्रांत परीक्षा के ‘शुतुरमुर्ग समाधान' से बाहर ठोस और वैकल्पिक व्यवस्था का प्रयोग करना होगा। इस व्यवस्था में विद्यार्थी केंद्रिकता और सुरक्षित विकल्पों को प्राथमिकता देनी होगी। राज्य का यह प्रयत्न सार्थक हो‚ इसके लिए प्रत्येक विद्यार्थी‚ शिक्षक और अभिभावक की ओर से यह आश्वासन भी होना चाहिए कि वे सुरक्षित और शुचितापूर्ण परीक्षा नवाचारों के भागीदार बनने के लिए सहमत हैं। 

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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