अफगानिस्तान से पैकअप (नवभारत टाइम्स)

कहा यह गया है कि सेना की वापसी की प्रक्रिया एक मई से शुरू होगी और 11 सितंबर से पहले पूरी कर ली जाएगी। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण संकेत यह है कि सेना की वापसी की इस प्रक्रिया को किसी शर्त से नहीं जोड़ा गया है। अनौपचारिक तौर पर इस बात की पुष्टि भी की गई है कि राष्ट्रपति मानते हैं, ऐसी कोई शर्त लगाने का मतलब होगा वहां सेना को अधिक से अधिक समय तक बनाए रखना।

 

 

बाइडेन प्रशासन की ताजा घोषणा के अनुसार अमेरिकी फौज इस साल 11 सितंबर यानी ट्विन टावर आतंकी हमले की बीसवीं बरसी तक अफगानिस्तान से पूरी तरह वापस हो जाएगी। इसका पहला मतलब तो यही है कि पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हुए समझौते के अनुसार अमेरिकी फौज की वापसी की जो समय सीमा (1 मई) तय की गई थी, उसे आगे खिसकाया जा रहा है। यह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि अमेरिका में चुनावों से पहले अक्सर अफगानिस्तान से सेना की वापसी एक मुद्दा बनती और फिर भुलाई जाती रही है। इसीलिए सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इस बार भी फौज की वापसी के सवाल को ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी है। ऐसी दो-तीन ठोस वजहें हैं जो इशारा करती हैं कि इस बार मामला पहले जैसा नहीं है। पहली वजह तो यही है कि मौजूदा राष्ट्रपति


जो बाइडेन काफी पहले से अफगानिस्तान से सेना की वापसी की वकालत करते रहे हैं। यह पहला मौका है जब वह अपनी इस राय पर अमल करवाने की स्थिति में हैं। दूसरी बात यह कि ताजा घोषणा में एक मई की समय सीमा को सीधे-सीधे खारिज नहीं किया गया है।


कहा यह गया है कि सेना की वापसी की प्रक्रिया एक मई से शुरू होगी और 11 सितंबर से पहले पूरी कर ली जाएगी। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण संकेत यह है कि सेना की वापसी की इस प्रक्रिया को किसी शर्त से नहीं जोड़ा गया है। अनौपचारिक तौर पर इस बात की पुष्टि भी की गई है कि राष्ट्रपति मानते हैं, ऐसी कोई शर्त लगाने का मतलब होगा वहां सेना को अधिक से अधिक समय तक बनाए रखना। जाहिर है, अमेरिकी सरकार फैसला कर चुकी है कि चाहे अफगानिस्तान में शांति की संभावना मजबूत हो या न हो, चाहे विभिन्न पक्षों के बीच साथ काम करने की शर्तों को लेकर कोई ठोस सहमति बने या न बने, उसे अब अपनी फौज वापस बुला ही लेनी है। अमेरिका के लिए इसके चाहे जो भी मतलब हों, भारत के लिहाज से देखें तो इसके बड़े गंभीर निहितार्थ हैं। मौजूदा हालात में तय है कि अमेरिका के अपने पांव खींचने से वहां जो शून्य बनेगा उसे चीन भरने की कोशिश करेगा। अमेरिका के बरक्स रूस और चीन की हाल के दिनों में बढ़ती करीबी इसमें उसकी मदद करेगी। कुछ ही दिनों पहले ईरान से हुआ 400 अरब डॉलर निवेश करने का 25 वर्षीय समझौता भी चीन की राह आसान बनाएगा। पिछले दो दशकों के दौरान भारत भी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण की योजनाओं में अच्छा खासा निवेश करता रहा है। जाहिर है उसे अफगानिस्तान में अपने हितों की रक्षा तो करनी ही है, यह भी सुनिश्चित करना है कि वह भारत विरोधी ताकतों की साजिश का नया केंद्र न बन जाए। काम कठिन है और वक्त कम। लेकिन शुरुआत खुले दिल और दिमाग से नए दोस्त तलाशने की मुहिम से हो सकती है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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