कारोबारी मालिकों के बीच शक्ति विभाजन की शाश्वत समस्या ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

कनिका दत्ता 

कारोबार मालिकों और पेशेवर प्रबंधन के बीच शक्तियों के बंटवारे का मसला भारतीय कारोबारी संचालन से जुड़ी बहसों का शाश्वत विषय है। बीते दिनों में दो अवसरों पर इसकी याद आई। पहला अवसर था अनीश शाह को महिंद्रा ऐंड महिंद्रा का सीईओ और प्रबंध निदेशक बनाया जाना। यह तब हुआ जब आनंद महिंद्रा ने वाहन से लेकर प्रौद्योगिकी क्षेत्र तक विस्तारित इस समूह के गैर कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका अपना ली। दूसरा मौका था बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के अध्यक्ष अजय त्यागी द्वारा यह याद दिलाया जाना कि शीर्ष 500 सूचीबद्ध कंपनियों में से अब तक केवल आधी कंपनियों ने उस आदेश का पालन किया है जिसमें सेबी ने कहा था कि 1 अप्रैल, 2022 तक अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक के पदों को अलग-अलग कर दिया जाए। त्यागी ने कहा कि वह अर्हताप्राप्त सूचीबद्ध कंपनियों से कह चुके हैं कि वे इस बदलाव के लिए पहले ही तैयारी कर लें।


सेबी ने कारोबारी संचालन पर कोटक समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए इसके लिए 1 अप्रैल, 2020 की तारीख तय की थी लेकिन महामारी के कारण इसे आगे खिसकाया गया। सेबी के नियम से समिति की अनुशंसा में संशोधन किया गया जिसने कहा था कि 40 फीसदी सार्वजनिक अंशधारिता वाली हर सूचीबद्ध कंपनी को अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक का पद अलग रखना चाहिए। बाजार नियामक ने बाजार पूंजीकरण के हिसाब से शीर्ष 500 कंपनियों पर नियम लागू किया और कहा कि बोर्ड का अध्यक्ष एक गैर कार्यकारी निदेशक होगा और कंपनी अधिनियम की परिभाषा के तहत वह प्रबंध निदेशक और सीईओ का रिश्तेदार नहीं हो सकता।


कंपनियों को प्रवर्तकों के नियंत्रण से बाहर करने की दिशा में यह दिलचस्प प्रयास है। यह नियम सन 1992 में ब्रिटेन में कारोबारी संचालन पर बनी समिति पर आधारित है जिसे इसके अध्यक्ष सर एड्रियन कैडबरी के नाम पर कैडबरी कमेटी के नाम से जाना जाता है। रिपोर्ट को दुनिया भर में कारोबारी संचालन और प्रभावित कॉर्पोरेट संचालन ढांचे की बाइबल के रूप में जाना जाता है। त्यागी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में प्रवर्तक अत्यंत ताकतवर हैं। उन्होंने कहा कि यह नियम प्रवर्तकों की स्थिति कमजोर करने के बजाय कारोबारी संचालन में सुधार करेगा। उन्होंने कहा कि भूमिकाओं के अलग-अलग होने से एक व्यक्ति में अधिकारों का केंद्रीकरण कम होगा और हितों का टकराव नहीं होगा।


पहली बात सही है लेकिन दूसरा बिंदु भारतीय संदर्भ में खुला प्रश्न बना रहेगा। हितों में टकराव की दलील अंशधारकों के हित बनाम प्रवर्तक या मालिक के हित की बात बन जाएगी। इस दलील से हम यह मानकर चल रहे हैं कि स्वतंत्र प्रबंध निदेशक अंशधारकों का प्रतिनिधित्व करता है और उसके पास यह शक्ति है कि वह कंपनी को दबदबे वाले प्रवर्तक-अंशधारक से बचाए, भले ही वह गैर कार्यकारी क्षमता में काम कर रहा हो।


प्रबंध निदेशक की नियुक्ति प्राय: प्रवर्तक की मंजूरी से की जाती है, भले ही यह बोर्ड के माध्यम से की जाए। उदाहरण के लिए यह सोचने वाली बात है कि क्या बी मुत्तुरामन जो उस वक्त टाटा स्टील के प्रबंध निदेशक और उपाध्यक्ष थे, क्या वह अध्यक्ष रतन टाटा से यह कह सकते थे कि वह 2007 में कोरस स्टील के लिए बोली न लगाएं? जबकि कुछ विश्लेषक और यहां तक कि शेयर बाजार भी समझ रहा था कि यह एक गलत निर्णय है। सन 2016 में जब साइरस मिस्त्री ने इस निर्णय की तीखी आलोचना की थी तब मुत्तुरामन ने उस निर्णय को सुविचारित बताते हुए उसका जमकर बचाव किया। ध्यान रहे कि मुत्तुरामन के पूर्ववर्ती जे जे इरानी ने इस सौदे को एक आकांक्षापूर्ण गलती करार दिया था। यहां कॉर्पोरेट बोर्ड की भूमिका पर सवाल उठता है। बोर्ड की क्या आवश्यकता है? व्यापक सिद्धांत के मुताबिक तो प्रबंधन को उनकी विशेषज्ञता का लाभ दिलाने के अलावा यह अंशधारकों को सुरक्षित रखने का एक और जरिया है।  इसके बावजूद टाटा स्टील के बोर्ड जैसे ताकतवर बोर्ड ने कोरस के अधिग्रहण को मंजूरी दी। तथ्य तो यह है कि विभिन्न मामलों में बोर्ड अपनी भूमिका का निर्वहन करने में विफल रहे हैं। सन 2008 में सत्यम के मामले से लेकर 2012 में आईसीआईसीआई बैंक और 2018 में आईएलऐंडएफएस तक के उदाहरण बताते हैं कि आखिर क्यों अब स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका मजबूत करने पर इतना बल दिया जा रहा है। लेकिन यह भी बस मृगतृष्णा है। बोर्ड की नियुक्तियों को अंशधारक मंजूरी देते हैं लेकिन तथ्य यही है कि बोर्ड सदस्य अध्यक्ष या प्रबंध निदेशक के मित्र या सहयोगी होते हैं। क्या उनसे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपनी नियुक्ति करने वाले प्रवर्तक या प्रबंध निदेशक की उपस्थिति में स्वतंत्र रूप से काम कर सकेंगे?


यही दलील ताकतवर पेशेवर सीईओ पर भी लागू होती है। आईसीआईसीआई बैंक बोर्ड ने चंदा कोछड़ द्वारा अपने पति के कारोबारी हितों के लिए ऋण देने से उत्पन्न हितों के टकराव में जिस अपारदर्शिता से काम किया वह एक उदाहरण है। इसी तरह आईएलऐंडएफएस का बोर्ड बुनियादी क्षेत्र की फाइनैंसिंग में रवि पार्थसारथि के खराब कार्य व्यवहार को लेकर बहुत जिज्ञासु नहीं दिखा। राणा कपूर के सौदों को लेकर येस बैंक बोर्ड का भी यही व्यवहार रहा। लार्सन ऐंड टुब्रो के ए एम नाइक उन पेशेवरों में से एक हैं जो कंपनी को रसूखदार अंशधारकों मसलन धीरूभाई अंबानी की रिलायंस और एवी बिड़ला समूह से बचाने में कामयाब रहे। इन दोनों ने एलऐंडटी का अधिग्रहण करने का प्रयास किया था। नाइक का उदाहरण बताता है कि नियम तभी अच्छे होते हैं जब उनका पालन करने वाले अच्छे हों। चाहे जो भी हो, सेबी ने जो कहा है उसका परीक्षण तब तक नहीं होगा जब तक बाजार पूंजीकरण की दृष्टि से देश की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज उसका पालन नहीं करती।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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