सामयिक: भीड़ में खोया मतदाता और सत्ता के लोभ में जकड़ा लोकतंत्र (पत्रिका)

कुमार प्रशांत

स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव से चलें हम और अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव का हंगामा मचा है, उस तक का सिलसिला देखें तो हमारे लोकतंत्र की तस्वीर बहुत डरावनी दिखाई देने लगी है। अब हो यह रहा है कि हमारे लोकतंत्र में किसी को भी न लोक की जरूरत है, न मतदाता की। सबको चाहिए भीड़ — बड़ी-से-बड़ी भीड़, बड़ा-से-बड़ा उन्माद, बेतहाशा शोर! लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल कर सभी दल व सभी नेता मस्त हैं। सबसे कद्दावर उसे माना जा रहा है जो सबसे बड़ा मजमेबाज है। कुछ ऐसा ही आगत भांप कर संविधान सभा में बाबा साहब आम्बेडकर ने कहा था - लोकतंत्र अच्छा या बुरा नहीं होता है। वह उतना ही अच्छा या बुरा होता है जितने अच्छे या बुरे होते हैं उसे चलाने वाले!

कोई 70 साल पहले हमारी लोकतांत्रिक यात्रा यहां से शुरू हुई थी कि हमें अपने मतदाता को मतदान के लिए प्रोत्साहित करना पड़ता था। फिर हमने चुनाव आयोग का वह शेषन-काल देखा जब आयोग की पूरी ताकत बूथ कैप्चरिंग को रोकने और आर्थिक व जातीय दृष्टि से कमजोर वर्गों को बूथ तक नहीं आने देने के षड्यंत्र को नाकाम करने में लगती थी। यह दौर भी आया और किसी हद तक गया भी। फिर वह दौर आया जब बाहुबलियों के भरोसे चुनाव लड़े व जीते जाने लगे। फिर बाहुबलियों का भी जागरण हुआ। उन्होंने कहा - दूसरों को चुनाव जितवाने से कहीं बेहतर क्या यह नहीं है कि हम ही चुनाव में खड़े हों और हम ही जीतें भी? राजनीतिक दलों को भी यह सुविधाजनक लगा। सभी दलों ने अपने यहां बाहुबली-आरक्षण कर लिया। फिर हमने देखा कि बाहुबलियों के सौदे होने लगे। सांसदों-विधायकों की तरह वे भी दलबदल करने लगे। लेकिन बढ़ते लोकतांत्रिक जागरण, मीडिया का प्रसार, चुनाव आयोग की सख्ती, आचार संहिता के दबाव ने उन्हें बलहीन बनाना शुरू कर दिया। वे जीत की गारंटी नहीं रह गए। यहां से आगे हम देखते हैं कि चुनाव विशेषज्ञों के 'जादू' से जीते जाने लगे।

होना तो यह चाहिए था कि चुनावों को लोकतंत्र के शिक्षण का महाकुंभ बनाया जाता लेकिन यह बनता गया विषकुंभ! लोकतांत्रिक आदर्श व मर्यादाएं गंदे कपड़ों की तरह उतार फेंकी गईं। सबके लिए राजनीति का एक ही मतलब रह गया - येन-केन-प्रकारेण सत्ता पाना, और सत्ता पाने का एकमात्र रास्ता बना चुनाव जीतना! किसने, कैसे और क्यों चुनाव जीता यह न देखना-पूछना सबने बंद कर दिया और जो जीता उसके लिए नारे लगाए जाने लगे - हमारा नेता कैसा हो... विनोबा भावे ने चुनाव के इस स्वरूप पर बड़ी मारक टिप्पणी की - यह आत्म-प्रशंसा, परनिंदा और मिथ्या भाषण का आयोजन होता है। अब किसी ने यों कहा है - चुनाव जुमलेबाजी की प्रतियोगिता होती है।

जिन पांच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं वहां से कैसी-कैसी आवाजें आ रही हैं, सुना है आपने? कोई धर्म की आड़ ले रहा है, कोई जाति की गुहार लगा रहा है, कोई अपने ही देशवासी को बाहरी कह रहा है तो कोई अपना गोत्र और राशि बता रहा है। साम-दाम-दंड-भेद कुछ भी वर्जित नहीं है इन चुनावों में। सार्वजनिक धन से सत्ता खरीदने का बेशर्म खेल चल रहा है। आप ध्यान से सुनेंगे तो भी नहीं सुन सकेंगे कि कोई कार्यक्रमों की बात कर रहा हो, कोई विकास का चित्र खींच रहा हो, कोई मतदाताओं का विवेक जगाने की बात कर रहा हो। हमारा लोकतंत्र अब इस मुकाम पर पहुंचा है कि किसी भी पार्टी को सजग, ईमानदार, स्व-विवेकी मतदाता की जरूरत नहीं है, वह सबके लिए बोझ बन गया है, उससे सबको खतरा है।

चुनावी प्रक्रिया को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया गया है कि इसमें से कोई स्वस्थ लोकतंत्र पैदा हो ही नहीं सकता है। चुनाव आयोग ने ही हमें बताया कि 2014 के आम चुनाव में देश भर में 300 करोड़ रुपए पकड़े गए जो मतदाताओं को खरीदने के लिए भेजे जा रहे थे तथा दलों का अपवाद किए बिना 11 लाख लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई जिन्हें दलों ने 'अपना कार्यकर्ता' बना रखा था। 2019 के आम चुनाव में इस दिशा में अच्छा 'विकास' देखा गया जब 844 करोड़ नकद रुपए जब्त हुए। यदि लोकतंत्र का ऐसा मखौल बनता जा रहा है तो चुनाव आयोग की प्रासंगिकता क्या सवालों के घेरे में नहीं है? क्या हमें स्वतंत्र, लोकतांत्रिक चुनाव की कोई दूसरी व्यवस्था के बारे में नहीं सोचना चाहिए? अगर चुनाव आयोग, राष्ट्रपति व सर्वोच्च न्यायालय से ऐसा कुछ कहे तो यह इलाज की दिशा में पहला कदम होगा। लोकतंत्र का मतलब ही है इसकी पहली व अंतिम सुनवाई लोक की अदालत में हो।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

सौजन्य - पत्रिका।
Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment