वोटों की खातिर सेहत से यह खिलवाड़ क्यों ? (पत्रिका)

सुख-दु:ख की तरह अच्छी-बुरी खबरें भी साथ चलती हैं। जैसे एक तरफ जीएसटी के रेकॉर्ड कलेक्शन की खबर है, तो दूसरी तरफ कोरोना की दूसरी लहर के चरम की ओर बढऩे की। जीएसटी जमाओं का पिछले छह माह से हर माह लगातार एक लाख करोड़ रुपए से अधिक होना जहां कोरोना महामारी के संकटकाल में आर्थिक गतिविधियों में हमारे हौसले के बढऩे का संकेत है, तो कोरोना का प्रसार लापरवाही और जोश में होश खोने को दिखाता है।

देश में शुक्रवार को 81,466 नए कोरोना मरीज सामने आए, जो 2 अक्टूबर 20 के बाद यानी छह माह में सर्वाधिक हैं। यही हाल मौतों का है। पिछले 24 घंटे में देश में कोरोना से 469 मौतें दर्ज हुई हैं, जो लगभग चार माह बाद इतनी ज्यादा हैं। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और पंजाब सहित एक दर्जन राज्यों का कोरोना से हाल-बेहाल है। कहीं लॉकडाउन लग गया है, तो कहीं लगाने की तैयारी है। सरकारें, चाहे केंद्र की हो या राज्यों की, सब दुविधा में हैं। उन्हें अर्थव्यवस्था भी दुरुस्त रखनी है और नागरिकों का स्वास्थ्य भी। अब दोनों को साधने की ये कोशिशें भारी पड़ती नजर आ रही हैं। वैसे ही, जैसे मार्च 2020 में पूरे देश में रातोंरात लगाए गए लॉकडाउन के वक्त हुआ था। एक तरफ कोरोना का विस्फोट और दूसरी तरफ कारखानों की बंदी और मजदूरों का महापलायन। बीच में हालात कुछ सुधरे। टीका आया तो हौसला भी बढ़ा, लेकिन अब हिन्दुस्तान सहित विश्व के अनेक देशों में कोरोना की बिगड़ती स्थिति ने एक बार फिर डर का माहौल बना दिया है। डर लगने लगा है कि कहीं देश कोरोना के खिलाफ जीती हुई जंग को हार न जाए। ऐसा हुआ तो दोष सरकारों के साथ तमाम राजनेताओं और जनता का होगा। जनता का इसलिए, क्योंकि वह कोरोना प्रोटोकॉल की पालना में जानलेवा लापरवाही कर रही है। देश की आधी आबादी बिना मास्क घूम रही है। दो गज दूरी और बार-बार साबुन से हाथ धोना तो उसे याद ही नहीं है। राजनेताओं का हाल यह है कि जैसे उन्हें चुनाव, वोट और अपनी सरकार के सिवाय कुछ दिख ही नहीं रहा। बड़ी-बड़ी सभाएं हो रही हैं। सरकारों का फोकस चुनावों पर होते ही जो प्रशासनिक ढिलाई आई उसने हर ओर माहौल बिगाड़ दिया।

अब भी समय है। सब अर्थव्यवस्था सुधारने के साथ जीवन बचाने के संकल्प पर एक ठोस रणनीति बनाएं, तो भारत को यूरोप बनने से बचाया जा सकता है। चुनाव हों, लोकतंत्र बचे, लेकिन क्या इसके लिए राजनेताओं का संकटकाल में भी अपना संविधान सम्मत कामकाज छोड़कर वोटों की फसल काटने के लिए घूमना जरूरी है। शायद नहीं।

सौजन्य - पत्रिका।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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