शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीव की यात्रा (पत्रिका)

गुलाब कोठारी, प्रधान संपादक पत्रिका समूह

सृष्टि को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-अमृत और मत्र्य। सत्यम्, तप:, जन:, मह:, स्व:, भुव:, भू:-ये ब्रह्माण्ड के 7 लोक भी अमृत और मत्र्य भाव से दो श्रेणियों में विभाजित हैं। इनमें सत्यम्, तप:, मह:, जन: पूर्ण रूप से तथा स्व: का आधा भाग अमृत है। स्व: का आधा भाग पार्थिव जगत् से जुड़कर निर्माणकारी क्रियाओं में प्रत्यक्ष रूप से सहभागिता रखता है। अत: इस आधे भाग सहित भुव: तथा भू: को मत्र्य सृष्टि कहा जाता है।

यथाण्डे तथा पिण्डे की अवधारणा के अनुसार प्राणी सृष्टि भी अमृत और मत्र्य-इन दो भावों से समन्वित है। हमारा एक भाग-ईश्वर भाव-अमृत सृष्टि होता है। दूसरा-जीव भाव-मत्र्य सृष्टि है। ईश्वर तथा जीव ही द्वासुपर्णा-साक्षी एवं भोक्ता कहलाते हैं।

'जीवों ब्रह्मैव नापर:' श्रुति वचन के अनुसार जीव वास्तव में ब्रह्म ही है। यह सारा संसार ब्रह्म का ही विवर्त है, विस्तार है। ब्रह्म-माया, रस-बल, अग्नि-सोम आदि नामों वाले युगल तत्त्व से ही सृष्टि-निर्माण हुआ है। ये अग्नि और सोम एक-दूसरे पर आश्रित हैं, अपने अस्तित्व के लिए। अग्नि ही सोम बन जाता है तथा सोम ही अग्नि बन जाता है। मूल में दोनों एक ही हैं। दोनों मिलकर सृष्टि का निर्माण करते हैं। अग्नि बाहर की ओर ऊपर फैलता है। सोम अग्नि में आहूत होता है, निर्माण की सामग्री बन जाता है।

सत्यलोक में अग्नि तत्त्व को वेद कहा जाता है। यह वेद ऋक्-यत्-जू व साम इन चार भागों में विभक्त है। प्रत्येक पिण्ड के निर्माण का प्रथम हेतु यही वेद तत्त्व है। सत्यलोक के आग्नेय प्राण में परमेष्ठी के सोम तत्त्व, अथर्व की आहुति से भृगु व अंगिरा की सृष्टि होती है। यहां भृगु सोम प्रधान तथा अंगिरा अग्नि प्रधान है। भृगु ही अप्-वायु-सोम तथा अंगिरा ही अग्नि-वायु-आदित्य बन जाते हैं। इस प्रकार ऋक्-यत्-जू:-साम-अप्-वायु-सोम-अग्नि-यम-आदित्य ये दस तत्त्व मिलकर विराट् कहलाते हैं।

अग्नि-वायु-आदित्य (देवता) रूप प्राणाग्नियों के संघर्ष से वैश्वानर अग्नि उत्पन्न होता है। जो सबको व्याप्त करे वही वैश्वानर है। यह अग्नि अमृत लोक (सूर्य) से मृत्यु लोक (पृथ्वी) तक सभी स्तरों पर रहता है। वास्तव में यह सूर्य से पृथ्वी लोक तक रहने वाला तापधर्मा अग्नि है। इस अग्नि क्षेत्र में 33 देव रहते हैं। इनमें आठ वसु पृथ्वी लोक में, ११ रुद्र अन्तरिक्ष लोक में तथा १२ आदित्य सूर्यलोक में रहते हैं। इनके साथ यहां दो अश्विनी प्राणों की भूमिका रहती है। जीवों के जीवत्व का मूल कारण यही वैश्वानर अग्नि है। यदि इसकी गर्मी न रहे तो हमारा शरीर ठण्डा हो जाता है। यह हमारे केश, लोम तथा नखाग्र भागों को छोड़कर समस्त शरीर में व्याप्त रहता है। इसकी प्रतिष्ठा जठर स्थान में होने से यही जठराग्नि कहा जाता है। कान-नाक बन्द करने पर जो एक धक-धक की ध्वनि सुनाई पड़ती है यही वैश्वानर अग्नि है। शरीर के स्पर्श से जो ताप अनुभव किया जाता है। यही इसका प्रत्यक्ष है। 'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:' रूप में कृष्ण भी इसी शारीरिक जठराग्नि का ही निरूपण कर रहे हैं। लोकभाषा में इसे बैसान्दर भी कहा जाता है। घर में यही चूल्हे की वह पवित्र अग्नि है जो वर्षपर्यन्त जाग्रत रखी जाती है। यानी रसोई का कार्य सम्पन्न होने पर रात्रि में इस अग्नि को राख से ढककर सुरक्षित रखा जाता है। अगली सुबह इसी अग्नि को चेतन कर लिया जाता है। यह बुझती तभी है जब घर में किसी की मृत्यु हो जाए। तब शोकनिवृत्ति पर पड़ोस के घर से बैसान्दर लाने की परम्परा रही है। इस तरह घर में भी सबके अन्न-पोषण का और आगे अन्न के आधार पर प्रजा उत्पत्ति का यही वैश्वानर आलम्बन है।

सृष्टि प्रक्रिया में वैश्वानर के तीन भेद बनते हैं-विराट्-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ। जब अग्नि में वायु और आदित्य आहूत होते हैं, तब विराट् बनता है। वायु में अग्नि और आदित्य की आहुतियों से हिरण्यगर्भ बनता है। आदित्य में अग्नि-वायु की आहुति से सर्वज्ञ का निर्माण होता है। यह अग्नित्रय तत्त्व ही ईश्वर कहलाता है।

विराट् अग्नि प्रधान, हिरण्यगर्भ वायु प्रधान तथा सर्वज्ञ आदित्य प्रधान है। तीनों क्रमश: अर्थ-क्रिया और ज्ञान प्रधान हैं। इस प्रकार वैश्वानर अग्नि अधिदैवत तथा अध्यात्म दोनों का संचालन करता है। विराट् का प्रवग्र्य (अंश) ही अध्यात्म में वैश्वानर कहा जाता है। हिरण्यगर्भ का प्रवग्र्य तैजस् तथा सर्वज्ञ का प्रवग्र्य प्राज्ञ कहलाते हैं। वैश्वानर-तैजस्-प्राज्ञ ईश्वर अंश बनकर 'जीव' कहलाता है। गीता में कृष्ण इसीलिए कहते हैं कि 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।'

जीव में वैश्वानर-तैजस्-प्राज्ञ बुद्धि युक्त ही क्रमश: वाक्-प्राण-मन हैं। सूर्य के मन-प्राण-वाक् से उत्पन्न होते हैं। मन-प्राण-वाक् को ही आत्मा कहते हैं। सूर्य ही जगत् का आत्मा कहा जाता है। वसु-रुद्र-आदित्य तीनों का योग ही वैश्वानर अग्नि है। वसु घन रूप अग्नि है-पृथ्वी का अग्नि है। इसी से अन्न का निर्माण होता है। शरीर में भी इसी वैश्वानर अग्नि में अन्न आहूत होता है। अत: शरीर विराट् अग्नि का निर्माण ही है। इसमें पार्थिव अग्नि की प्रधानता रहती है।

सृष्टि का बीजारोपरण-जीवों का-महद् लोक (सूर्य पूर्व) में हो जाता है। सूर्य के द्वारा जीव की अहंकृति, चन्द्रमा द्वारा प्रकृति एवं पृथ्वी द्वारा आकृति तय हो जाती है। इस प्रकार जीव के निर्माण में सभी तैंतीस देवता योग करते हैं।

जो सोम सूर्य पर आहूत होता है, वह सूर्य के ऊपर के आधे अमृत भाग पर ही गिरता है। नीचे के आधे भाग पर नहीं गिरता। अमृत के इस अभाव के कारण नीचे की-सूर्य के आगे की-सृष्टि मत्र्य अथवा मृत्युलोक कहलाती है। जल तो वर्षा द्वारा सीधा पृथ्वी पर पहुंचकर औषधि पैदा करता है। वायु, अन्तरिक्ष में चन्द्रमा से युक्त होकर प्रकृति-सत्व-रजस्-तमस्-का कारण बनता है। सूर्य में आहूत सोम विराट् रूप में आत्मा का रूप लेता है। सूर्य अक्षर सृष्टि का केन्द्र है। यहां से अक्षर सृष्टि का मत्र्य भाग और क्षर का मत्र्य भाग मिलकर विश्व (स्थूल) का निर्माण करते हैं। अक्षर और क्षर का अमृत भाग सूर्य में विराट् के साथ आत्मा से जुड़ता है।

सूर्य के नीचे सृष्टि के विभाजन हो जाते हैं। एक सूर्य नियंत्रित आत्मा की सृष्टि चलती है, तो दूसरी ओर शरीर नियामक सृष्टि चलती है। भौतिक सृष्टि शरीर प्रधान है, वहीं आत्म-भाव प्राण प्रधान है। चूंकि महद्लोक में तीनों स्वरूप (अहंकृति-प्रकृति-आकृति) निर्धारित हो जाते हैं, अत: आगे जाकर आत्मा अपने शरीर से युक्त हो जाता है। शुक्र का शुक्राणु (शरीर रूप) भौतिक सृष्टि का सूक्ष्म कण है। इसमें भी सृष्टि के सम्पूर्ण तत्त्व तथा शरीर का ढांचा रहता है। आयु रहती है। जो अक्षर जीव में आएगा, वही यहां क्षर-ब्रह्म से सम्बन्ध बनाएगा। दोनों के सूत्र महद् में ही बने थे। शरीर में गति नहीं है, न ही ज्ञान में गति। गति प्राण में होती है, अत: वही मूल में कर्ता माना जाता है। पुरुष कहलाता है।

सूर्य ब्रह्माण्ड का हृदय है-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र का स्थान है। इन्हीं तीनों अग्नि प्राणों से जीव का भी हृदय निर्मित होता है। सूर्य के अमृत भाव का हृदय जीव के मत्र्य स्वरूप के हृदय से जुड़कर क्षर ब्रह्म (मत्र्यक्षर) का केन्द्र बन जाता है। यही सूक्ष्म शरीर रूप में प्रवेश करता है। इसी के साथ आत्मा यानी कारण शरीर-रहता है। प्राणों के द्वारा उचित काल में जीव स्थूल शरीर में प्रवेश पाता है।

जीव का निर्माण अन्न और वैश्वानर के माध्यम से, पंचाग्नि तंत्र से हो रहा है। निर्माण का आधार शुक्र है। शुक्र (बीज) का निर्माण अन्न से सप्तधातु के रूप में होता है। यही शुक्र तत्त्व जीव की उत्पत्ति का कारक है। जीव पंचाग्नि के द्वारा शुक्र रूप में परिणत होता है। अर्थात् एक ही जीव पांच बार गर्भ में जाता है। नए स्वरूप में पैदा होता है। शुक्र ही जीव के साथ, सूर्य से आत्मा में आ रहा है। अत: ईश्वर प्रजापति और जीव प्रजापति दोनों की युक्ति ही आत्मा का स्वरूप है।
क्रमश:

सौजन्य - पत्रिका।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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