न्याय की गति (जनसत्ता)

अदालतों में लंबित मुकदमों के बोझ को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। लेकिन इसे कम करने के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति से लेकर संसाधनों के स्तर पर दूसरी जरूरतों को पूरा करने की ओर कारगर व्यवस्था करने के मामले में उदासीनता दिखाई देती है। यह बेवजह नहीं है कि निचली से लेकर ऊपरी स्तर की अदालतों में दिनोंदिन मुकदमों का अंबार खड़ा होता गया है। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि इंसाफ की आस में अदालत के दरवाजे पर पहुंचे लोगों को कैसी पीड़ा झेलनी पड़ती होगी।

अदालतों में न्यायाधीशों की कमी के मसले पर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन इस ओर अब तक ठोस पहल नहीं हो सकी थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की दो से तीन साल की अवधि के लिए अस्थायी न्यायाधीशों के तौर पर नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया है। शीर्ष अदालत के मुताबिक अस्थायी जजों के तौर पर पूर्व न्यायाधीशों की नियुक्ति का मतलब यह नहीं होगा कि उन्हें नियमित न्यायाधीशों की जगह पर रखा जाएगा। इसके लिए एक ‘निष्क्रिय’ संवैधानिक प्रावधान को लागू किया गया है, ताकि लंबित मामलों को निपटा कर उनकी संख्या कम की जा सके।
गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 224ए में उच्च न्यायालयों में अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान है, लेकिन इसका सहारा दुर्लभ स्थितियों में ही लिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने अगर इस प्रावधान के सहारे समस्या की जटिलता को कम करने की ओर कदम बढ़ाया है, तो उसकी वजहें साफ हैं।

देश के उच्च न्यायालयों में करीब सत्तावन लाख मामले लंबित हों तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि मौजूदा न्यायिक ढांचे में इन्हें निपटाने में कितना वक्त लगेगा और इस बीच न्याय की अवधारणा को कैसे देखा जाएगा! दरअसल, यह मसला केवल उच्च न्यायालयों या फिर किसी एक राज्य तक सिमटा हुआ नहीं है। समूचे देश की अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं और इसमें न्यायिक तंत्र के मौजूदा ढांचे की कमियों की वजह से रोजाना बढ़ोतरी होती जा रही है। खासतौर पर मौजूदा महामारी के दौर में सुप्रीम कोर्ट में लंबित मुकदमों के आंकड़े में साढ़े तीन फीसद से ज्यादा की वृद्धि हो गई है। राज्य स्तर पर हाई कोर्ट और निचले स्तर की अदालतों में स्थिति और ज्यादा चिंताजनक है।


सच यह है कि न्यायालयों के बुनियादी ढांचे में कमी के साथ-साथ जजों के लिए स्वीकृत पदों का खाली होना मुख्य कारण है। आज भी हमारे देश में प्रति दस लाख की आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या इक्कीस के आसपास है। जबकि अमेरिका में यह अनुपात एक सौ सात और कनाडा में पचहत्तर है। लेकिन समस्या इससे ज्यादा गहरी है। देश के उच्च न्यायालयों में जजों के तैंतीस फीसद और निचली अदालतों में तेईस फीसद पद खाली हैं। इसके अलावा, मौजूदा ढांचे में न्यायालयों में छुट्टियां और काम की अवधि आदि का विश्लेषण किया जाए, तो समस्या की अन्य परतें खुलती हैं। ऐसे में मुकदमों के अंबार के साथ-साथ न्याय की गति कैसी हो सकती है, यह समझा जा सकता है।


ऐसा नहीं है कि समस्या की जटिलता पर किसी की नजर नहीं गई है। समय-समय पर अनेक रिपोर्टों और खुद विधि आयोगों की सुधारों से संबंधित सिफारिशों में कई अहम सुझाव सामने आते रहे हैं। लेकिन उन पर गौर करना जरूरी नहीं समझा गया। आज लंबित मुकदमों के बोझ की फिक्र यहां तक पहुंच गई कि इसके लिए अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति का सहारा लेना पड़ा। जरूरत इस बात की है कि अदालतों में खाली पदों पर नियमित नियुक्ति और न्यायिक बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की ओर तत्काल और शिद्दत से ध्यान दिया जाए।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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