नितिन देसाई
भले ही चुनावों को लेकर औपचारिक प्रावधान बरकरार हैं लेकिन भारतीय लोकतंत्र राजनीतिक संस्कृति के एक बड़े संकट का सामना कर रहा है। इस संकट में सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच के संवाद, एक विविधतापूर्ण समाज में बहुसंख्यकवाद की बढ़ती वैधता, मूल अधिकारों और कानून प्रवर्तन के प्रावधानों के प्रभाव को लेकर भरोसा कम होना, केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के अधिकारों के अतिक्रमण के साथ संघवाद का क्षय, विकास संबंधी नीतियों का चुनावी नतीजों को लक्ष्य कर बनाया जाना आदि बातें शामिल हैं।
भारतीय संविधान ने देश को धर्मनिरपेक्ष, उदार लोकतांत्रिक मूल्यों वाला बनाया और इसकी वजह थी विभाजन के सांप्रदायिक आधार को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया। संविधान सभा की बहसों को पढऩे से भी यह बात प्रमाणित होती है। नेहरू युग में इसका बचाव एक ऐसे नेता ने किया जो दिल से धर्मनिरपेक्ष था, संसदीय परंपरा की इज्जत करता था और लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका की भी। सच तो यह है कि सत्ताधारी दल स्वयं विविध हितों वाले लोगों का समूह था और इसलिए विचारधारा आधारित शासन रोकने में मदद मिली। आज जिस दल का सत्ता पर कब्जा है वह विचारधारा आधारित राजनीतिक शक्ति है।
ऐसा नहीं है कि संसदीय परंपरा और विपक्ष का यह सम्मान नेहरू युग की खासियत रही। बहुत बाद में पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी यह देखने को मिला। परंतु इन दिनों विपक्ष और सरकार के साथ रिश्तों की जो स्थिति है और कानून तथा नीतियां बनाने के पहले मशविरों के न होने ने भी उस विश्वास को कमजोर किया है जिसके आधार पर एक लोकतांत्रिक सरकार काम करती है।
हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है एक धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतांत्रिक देश के रूप में हमारे भविष्य में आस्था बहाल करना और विविधता को लेकर व्यापक सहिष्णुता। यह बात संविधान की बुनियाद में अंतर्निहित है जिसके तहत सार्वभौमिक मताधिकार से शासन चलता है। इसका अर्थ है धर्म, जातीय पहचान, भाषा, लिंग और अन्य विविधता वाली बातों की भरपूर इज्जत करना।
सन 1940 के दशक में सार्वभौमिक मताधिकार के कारण समाज में समता की भावना पैदा हुई जबकि हमारा समाज ऐसा जहां पदसोपानिक असमानता सामाजिक ढांचे और व्यक्तिगत मनोविज्ञान में गहरे तक धंसी हुई है। इससे संबंधित निर्देश विभिन्न जिलों में पदस्थ सभी अफसरशाहों तक पहुंचाए गए कि ऐसी सार्वभौमिक मतदाता सूची तैयार की जाए। पहले से मौजूद मतदाता सूचियां प्राय: सार्वभौमिक नहीं होती थीं और समुदायों द्वारा तैयार की जाती थीं। अफसरशाहों ने इस आदेश को गंभीरता से लिया। उदाहरण के लिए तत्कालीन बंबई के जिला कलेक्टर ने पूछा कि सड़कों पर रहने वालों को कैसे छोड़ा जा सकता है जबकि उनका तो कोई स्थायी पता भी नहीं होता। मेरा मानना है कि अफसरशाहों ने तय किया कि उनकी सोने की जगह को ही उनका पता माना जाए। यह नियम अब भी जारी है। आज जरूरत इस बात की है कि हमारी अफसरशाही शासन के हर स्तर पर ऐसी ही प्रतिबद्धता दिखाए।
सार्वभौमिक मताधिकार जैसा सिद्धांत तब कारगर नहीं है जब समाज के किसी एक समूह की वैचारिकी हावी हो। लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ा खतरा बहुसंख्यकवादी अधिनायकवाद है। इससे बचने के लिए हमें ऐसी राजनीतिक संस्कृति और मीडिया की जरूरत है जो लोगों के बीच विश्वास बढ़ाए।
सबसे पहले इस बात को चिह्नित करना होगा कि हम सब समान हैं और एक व्यक्ति का एक मत है। भले ही बहुसंख्यक वर्ग को जीत हासिल हो लेकिन अल्पसंख्यकों को भी अपने मतांतर के बचाव और संरक्षण का पूरा अधिकार है। यह भरोसा एक सक्रिय लोकतंत्र में पैदा होता है। दूसरी बात, इससे आगे यह भी कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति अपना नजरिया पेश करने को स्वतंत्र है। इसका व्यावहारिक उदाहरण है लोकतंत्र में अल्पसंख्यक नजरिये को अभिव्यक्त करना। तीसरा, चरण एक कदम आगे का है जहां कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि अगर मैं आपकी जगह रहूं तो ऐसा कहूंगा। ऐसी बातें एक लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के नजरिये को व्यवहार में जगह देती हैं। मिसाल के तौर पर विद्यालयों में माथे पर स्कार्फ लगाने की इजाजत देना। हमें आज ऐसी राजनीतिक संस्कृति की आवश्यकता है जिसमें सच्चाई, सम्मान, सभ्यता और संयम हों।
यदि पुलिस कानून के बजाय अपने राजनीतिक आकाओं द्वारा तय नियमों का पालन करेगी तो ऐसा नहीं होगा। बहुसंख्यक वर्ग के निगरानी दस्ते अल्पसंख्यक प्रदर्शनकारियों को जिस प्रकार प्रताडि़त करते हैं और उन्हें जो बचाव प्राप्त है वह स्तब्ध करने वाला है। पुलिस की कार्यप्रणाली को निष्पक्ष बनाने के अलावा हमें गैर सरकारी संस्थानों के अहम तत्त्वों में भी नई ऊर्जा का संचार करना होगा ताकि लोग साथी नागरिकों के साथ नैतिक बंधन महसूस कर सकें।
देश में विविधता के सम्मान का एक अर्थ संघवाद का सम्मान करना भी होना चाहिए। संविधान में केंद्र सरकार शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। इसके लिए संघीय सरकार का इस्तेमाल किया गया है जो संविधान में संघवाद पर जोर को उजागर करता है। संभवत: संघवाद का सबसे अहम पहलू जिसमें सुधार की जरूरत है वह है राज्यपालों की नियुक्ति। सरकारिया आयोग ने इसे लेकर कुछ अनुशंसाएं कीं लेकिन उनका पालन नहीं किया गया और हम एक ऐसी व्यवस्था में उलझ गए हैं जहां केंद्र सरकार अपने दल के वफादारों को राज्यपाल बनाकर राज्य सरकारों के कामकाज में बाधा डाल सकती है। परंतु ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां सुधार की जरूरत है। मसलन राज्य सूची के विषयों में केंद्र समर्थित योजनाओं का विस्तार।
इसकी वजहों में से एक वह विकास नीति भी है जो चुनावी लोकलुभावनवाद पर केंद्रित है। जो लोगों की पसंद के मुताबिक उन्हें घरेलू गैस, बिजली, खाने-पीने की वस्तुएं, स्वास्थ्य सेवा (खासकर मौजूदा कोविड महामारी जैसी आपात स्थितियों में) जैसी सुविधाएं देती है। इसमें कुछ भी अवांछित नहीं है और यह वह तरीका है जिसका इस्तेमाल अमीरों ने हमेशा अपने हितों के बचाव में किया है। अच्छी दीर्घकालिक कल्याण नीति एक कदम आगे की होगी और उसमें वेतन-भत्ते और आय के समुचित वितरण की व्यवस्था होगी।
नेतृत्वकर्ता बनने के लिए राजनेताओं को चुनावी लाभ से आगे बढ़कर देश के लिए एक उचित दृष्टिकोण सामने रखना चाहिए। उच्च न्यायपालिका को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उक्त दृष्टिकोण के लिए बनने वाले कानून और नीतियों में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का ध्यान रखा जाए और अल्पसंख्यकों का सम्मान हो तथा वे संविधान का अनिवार्य अंग हों। यदि ऐसा होगा तभी भारत जैसा विविधतापूर्ण देश एक व्यवहार्य सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक भविष्य के साथ प्रगति कर पाएगा।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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