आकाश प्रकाश
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने हाल ही में एक मशविरा पत्र प्रस्तुत किया जिसके माध्यम से स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति और पंजीयन के नियम कड़े किए गए। प्रस्तावित नियम स्वतंत्र निदेशकों के चयन और उन्हें दिए जाने वाले वेतन भत्तों में बहुत जरूरी बदलाव करने वाले हैं। यह साफ दिखता है कि अल्पांश अंशधारकों और प्रवर्तकों के बीच या परिचालन प्रबंधन में शक्ति के असंतुलन को दूर करने के प्रयास में ऐसा किया जा रहा है।
आज कारोबारी शासन का पूरा ढांचा स्वतंत्र निदेशकों और अल्पांश अंशधारकों के हितों का प्रतिनिधित्व करने की उनकी क्षमता पर आधारित है। वे ऐसा प्रवर्तक समूह और परिचालन प्रबंधन पर जरूरी निगरानी के जरिये करते हैं। मौजूदा स्थिति यह है कि अधिकांश मामलों में प्रवर्तक समूह या परिचालन प्रबंधन ही स्वतंत्र निदेशकों का चयन करता है। एक बोर्ड नामांकन समिति होती है जिसे इनका चयन करना होता है लेकिन हकीकत में प्रवर्तक समूह तय करता है कि कौन स्वतंत्र निदेशक होगा।
अल्पांश अंशधारक, जिनका प्रतिनिधित्व स्वतंत्र निदेशकों को करना चाहिए उनकी हैसियत बहुत कमजोर हो जाती है। या तो इन निदेशकों की नियुक्ति अतिरिक्त निदेशक के रूप में होती है या फिर प्रवर्तक अपने मतों के बल पर उन्हें जिता देते हैं। खासकर इसलिए क्योंकि कई विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक मत नहीं देते। अधिकांश संस्थागत निवेशक खुद को इतना मजबूत नहीं समझते कि वे इस पद के लिए प्रत्याशी सुझाएं या प्रवर्तक समूह के चुने व्यक्ति का विरोध करें। संस्थागत निवेशकों से तो मशविरा भी शायद किया जाता हो।
कारोबारी संचालन बरकरार रखने में खराब प्रदर्शन वाले निदेशक बने रहते और नए बोर्ड में भी जगह बना लेते। इनकी नियुक्ति को शायद ही कोई चुनौती देता है। देश में सफल बोर्ड प्रबंधन और संचालन वाली कंपनियां गिनती की हैं। भारत में अधिकांश कंपनियों के निदेशक प्रवर्तकों या प्रबंधकों से स्वतंत्र नहीं होते। देश में ऐसे कितने बोर्ड होंगे जो किसी सीईओ या प्रवर्तक को हटाने के लिए मतदान करेंगे?
सेबी के प्रस्तावित नियमों के मुताबिक हर निदेशक के चुनाव या उसकी दोबारा नियुक्ति को दोहरे मतों की वैधता चाहिए होगी। अंशधारकों में से बहुलांश को प्रस्तावित निदेशक के पक्ष में मत देना होगा साथ ही अल्पांश हिस्सेदारों को भी साधारण बहुमत से ऐसा करना होगा। यदि इनमें से कोई इनके खिलाफ वोट करता है तो नए निदेशक का नाम प्रस्तावित करना होता है अथवा 90 दिन की प्रतीक्षा के बाद उचित वजह के साथ दोबारा उस निदेशक का नाम प्रस्तावित करना होता है। दूसरे मतदान में सभी अंशधारक एक बार वोट देंगे और विवादित निदेशक को 75 फीसदी मत हासिल करने होंगे। इस व्यवस्था में अल्पांश हिस्सेदार काफी ताकतवर होंगे और अवांछित निदेशक बोर्ड में नहीं रह सकेंगे। इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि निवेशकों का एक छोटा हिस्सा किसी निदेशक की राह नहीं रोक सकेगा। इससे प्रवर्तक समूह/प्रबंधन को भी यह अवसर मिलेगा कि वह शंकालुओं को संतुष्ट कर सके और प्रस्तावित निदेशक से जुड़ी चिंताओं का समाधान कर सकें। मेरा मानना है कि स्वतंत्र निदेशक के चयन का यह बहुत संतुलित तरीका है। यह ब्रिटेन के मौजूदा तरीके जैसा है।
निदेशकों को हटाने के लिए भी ऐसे ही नियम बनाए गए हैं। अल्पांश अंशधारकों को स्वतंत्र निदेशकों के निष्कासन के मामले में प्रभावी वीटो अधिकार उनके हितों की रक्षा करेगा। यदि स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति पूरी तरह प्रवर्तकों या प्रबंधन पर निर्भर हो तो उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे प्रवर्तकों के खिलाफ मतदान करेंगे। यह सही है कि कई स्वतंत्र निदेशक अल्पांश हिस्सेदारों के प्रति अपनी जवाबदेही समझते हैं और पारदर्शिता सुनिश्चित करते हैं लेकिन मौजूदा ढांचा प्रवर्तक समूह के खिलाफ जाने को मुश्किल बनाता है। नए नियम संतुलन कायम कर अल्पांश हिस्सेदारों के लिए बचाव सुनिश्चित करेंगे।
सेबी ने यह प्रस्ताव भी रखा है कि निदेशकों के पद छोडऩे को लेकर अधिक जानकारी पेश की जाए। उनका त्यागपत्र सामने लाना होगा और यदि वे समय की कमी जैसा कोई कारण देते हैं तो उन्हें किसी अन्य कंपनी में 12 माह तक पद संभालने से वंचित किया जाएगा। इस कदम से बोर्ड छोडऩे की वजहों को लेकर पारदर्शिता बढ़ेगी। निवेशक स्वतंत्र निदेशकों के पद छोडऩे को गंभीरता से लेते हैं और वे जानना चाहेगे कि निदेशक के पद छोडऩे की मूल वजह क्या है।
नए नियमों के बाद प्रवर्तक समूह स्वतंत्र निदेशक को अतिरिक्त निदेशक के रूप में नहीं चुन सकेगा और इस नियुक्ति को 12 महीने यानी अगली सालाना आम बैठक तक अंशधारकों की मंजूरी के लिए नहीं रोक सकेगा। बिना अंशधारकों की पूर्व स्वीकृति के कोई बोर्ड में कोई नियुक्ति नहीं होगी। प्रस्ताव के अनुसार किसी के निधन या त्यागपत्र के कारण हुई अचानक नियुक्ति पर तीन माह के भीतर अंशधारकों की मंजूरी लेनी होगी। सेबी ने स्वतंत्र निदेशक बनने की अर्हता तथा अंकेक्षण और नामांकन समितियों की के घटकों को भी सख्त बनाने की बात कही है।
अंतिम बिंदु निदेशक के वेतन भत्तों से संबंधित है। स्वतंत्र निदेशकों को सौंपे गए दायित्वों को देखते हुए उन्हें उचित धनराशि भी मिलना चाहिए। निदेशक का दायित्व निभाने के लिए ऊर्जा और समय की आवश्यकता है। वैधानिक दायित्व भी हैं। निदेशकों को कर्मचारी शेयर स्वामित्व योजना की पेशकश की जानी चाहिए। ऐसे में यदि कंपनी का प्रदर्शन बेहतर होगा तो उन्हें भी फायदा होगा। उक्त योजना निदेशकों के पांच वर्ष के कार्यकाल के लिए उन्हें दी जा सकती है। पहले चुकता पूंजी को वापस लेने का भी अधिकार होगा। इससे यह तय होगा कि निदेशक बाजार पूंजीकरण तथा आर्थिक सफलता तथा फर्म की प्रतिष्ठा को तवज्जो दें। मुझे इसमें विवाद की कोई गुंजाइश नहीं दिखती। बतौर निवेशक हम चाहते हैं कि निदेशक व्यवस्थित काम करें। समुचित प्रोत्साहन मिलने पर निदेशक भी बेहतर कार्य व्यवहार अपनाएंगे।
कारोबारी भारत इन प्रस्तावित बदलावों से बहुत रोमांचित नहीं होगा लेकिन संस्थागत निवेशकों को लगता हैकि ये सुविचारित और समझदारी भरे कदम हैं। पर्यावरण, सामाजिक और कारोबारी संचालन और निगरानी का वक्त अब आ चुका है। ये दीर्घावधि के ढांचागत रुझान हैं। सभी निवेशक इन विषयों को लेकर चिंतित रहते हैं। यदि भारत इन क्षेत्रों में नेतृत्व करता है तो न केवल हमारी विश्वसनीयता सुधरेगी बल्कि दीर्घावधि की पूंजी भी प्रचुर मात्रा में आएगी। दुनिया के बड़े निवेशक अब इन पर ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में हमारे लिए बेहतर है कि हम इन्हें अपनाएं और इस क्षेत्र में उभरते बाजारों का नेतृत्व करें। सेबी की सराहना की जानी चाहिए कि उसने ये प्रस्ताव और दिशानिर्देश पेश किए। इनका जल्द से जल्द क्रियान्वयन किया जाना चाहिए।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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