आतंकवादी हैं ये (राष्ट्रीय सहारा)

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियों ने फिर साबित किया कि आतंकवाद की तरह खून और हिंसा के अलावा उनका कोई मानवीय उद्देश्य नहीं। पूरा देश शहीद और घायल जवानों के साथ है। करीब चार घंटे चली मुठभेड़ में १५ माओवादियों के ढेर होने का मतलब उनको भी बड़ी क्षति हुई है। साफ है कि वे भारी संख्या में घायल भी हुए होंगे। किंतु‚ २२–२३ जवानों का शहीद होना बड़ी क्षति है। ३१ से अधिक घायल जवानों का अस्पताल में इलाज भी चल रहा है। इससे पता चलता है कि माओवादियों ने हमला और मुठभेड़ की सघन तैयारी की थी। 


 जो जानकारी है माओवादियों द्वारा षडयंत्र की पूरी व्यूह रचना से घात लगाकर की गई गोलीबारी में घिरने के बाद भी जवानों ने पूरी वीरता से सामना किया‚ अपने साथियों को लहूलुहान होते देखकर भी हौसला नहीं खोया‚ माओवादियों का घेरा तोड़ते हुए उनको हताहत किया तथा घायल जवानों और शहीदों के शव को घेरे से बाहर भी निकाल लिया। कई बातें सामने आ रहीं हैं। सुरक्षाबलों को जोनागुड़ा की पहाडि़यों पर भारी संख्या में हथियारबंद माओवादियों के होने की जानकारी मिली थी। छत्तीसगढ़ के माओवाद विरोधी अभियान के पुलिस उप महानिरीक्षक ओपी पाल की मानें तो रात में बीजापुर और सुकमा जिले से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा बटालियन‚ डीआरजी और एसटीएफ के संयुक्त दल के दो हजार जवानों को ऑपरेशन के लिए भेजा गया था। माओवादियों ने इनमें ७०० जवानों को तर्रेम इलाके में जोनागुड़ा पहाडि़यों के पास घेरकर तीन ओर से हमला कर दिया। 


 इस घटना के बाद फिर लगता है मानो हमारे पास गुस्से में छटपटाना और मन मसोसना ही विकल्प है। यह प्रश्न निरंतर बना हुआ है कि आखिर कुछ हजार की संख्या वाले हिंसोन्माद से ग्रस्त ये माओवादी कब तक हिंसा की ज्वाला धधकाते रहेंगेॽ ध्यान रखिए माओवादियों ने १७ मार्च को ही शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था। इसके लिए उन्होंने तीन शर्तं रखी थीं–सशस्त्र बल हटें‚ माओवादी संगठनों से प्रतिबंध खत्म हों और जेल में बंद उनके नेताओं को बिना शर्त रिहा किया जाए। एक ओर बातचीत का प्रस्ताव और इसके छठे दिन २३ मार्च को नारायणपुर में बारूदी सुरंग विस्फोट में पांच जवान शहीद हो गए। दोपहर में सिलगेर के जंगल में घात लगाए माओवादियों ने हमला कर दिया था। ऐसे खूनी धोखेबाजों और दुस्साहसों की लंबी श्रृंखला है। साफ है कि इसे अनिश्चितकाल के लिए जारी रहने नहीं दिया जा सकता। यह प्रश्न तो उठता है कि आखिर दो दशकों से ज्यादा की सैन्य– असैन्य कार्रवाइयों के बावजूद उनकी ऐसी शक्तिशाली उपस्थिति क्यों हैॽ निस्संदेह‚ यह हमारी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यहीं से राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रश्नों के घेरे में आती है। पिछले करीब ढाई दशक से केंद्र और माओवाद प्रभावित राज्यों में ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसने इन्हें खतरा न बताया हो। यूपीए सरकार ने आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादियों को सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था। केंद्र के सहयोग से अलग–अलग राज्यों में कई सैन्य अभियानों के साथ जन जागरूकता‚ सामाजिक–आÌथक विकास के कार्यक्रम चलाए गए हैं‚ लेकिन समाज विरोधी‚ देश विरोधी‚ हिंसाजीवी माओवादी रक्तबीज की तरह आज भी चुनौती बन कर उपस्थित हैं। हमें यहां दो पहलुओं पर विचार करना होगा। 


 भारत में नेताओं‚ बुद्धिजीवियों‚ पत्रकारों‚ एक्टिविस्टों का एक वर्ग माओवादियों की विचारधारा को लेकर सहानुभूति ही नहीं रखता उनमें से अनेक इनको कई प्रकार से सहयोग करते हैं। राज्य के विरु द्ध हिंसक संघर्ष के लिए वैचारिक खुराक प्रदान करने वाले ऐसे अनेक चेहरे हमारे आपके बीच हैं। इनमें कुछ जेलों में डाले गए हैं‚ कुछ जमानत पर हैं। इनके समानांतर ऐसे भी हैं‚ जिनकी पहचान मुश्किल है। गोष्ठियों‚ सेमिनारों‚ लेखों‚ वक्तव्यों आदि में जंगलों में निवास करने वालों व समाज की निचली पंक्ति वालों की आÌथक–सामाजिक दुर्दशा का एकपक्षीय चित्रण करते हुए ऐसे तर्क सामने रखते हैं‚ जिनका निष्कर्ष यह होता है कि बिना हथियार उठाकर संघर्ष किए इनका निदान संभव नहीं है। अब समय आ गया है जब हमारे आपके जैसे शांति समर्थक आगे आकर सच्चाइयों को सामने रखें। अविकास‚ अल्पविकास‚ असमानता‚ वंचितों‚ वनवासियों का शोषण आदि समस्याओं से कोई इनकार नहीं कर सकता‚ लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। केंद्र और राज्य ऐसे अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चला रहे हैं‚ जो धरातल तक पहुंचे हैं। 


 उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए जा रहे और बने हुए आवास‚ स्वच्छता अभियान के तहत निÌमत शौचालय‚ ज्योति योजनाओं के तहत बिजली की पहुंच‚ सड़क योजनाओं के तहत दूरस्थ गांवों व क्षेत्रों को जोड़ने वाली सड़कों का लगातार विस्तार‚ किसानों के खाते में हर वर्ष ६००० भुगतान‚ वृद्धावस्था व विधवा आदि पेंशन‚ पशुपालन के लिए सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन‚ आयुष्मान भारत के तहत स्वास्थ्य सेवा‚ कई प्रकार की इंश्योरेंस व पेंशन योजनाएं को साकार होते कोई भी देख सकता है। हर व्यक्ति की पहुंच तक सस्ता राशन उपलब्ध है। कोई नहीं कहता कि स्थिति शत–प्रतिशत बदल गई है‚ लेकिन बदलाव हुआ है‚ स्थिति बेहतर होने की संभावनाएं पहले से ज्यादा मजबूत हुई हैं तथा पहाड़ों‚ जंगलों पर रहने वालों को भी इसका अहसास हो रहा है। ॥ इसमें जो भी इनका हित चिंतक होगा वो इनको झूठ तथ्यों व गलत तर्कों से भड़का कर हिंसा की ओर मोड़ेगा‚ उसके लिए विचारों की खुराक उत्पन्न कराएगा‚ संसाधनों की व्यवस्था करेगा या फिर जो भी सरकारी‚ गैर सरकारी कार्यक्रम हैं‚ वे सही तरीके से उन तक पहुंचे‚ उनके जीवन में सुखद बदलाव आए इसके लिए काम करेगाॽ साफ है माओवादियों के थिंक टैंक और जानबूझकर भारत में अशांति और अस्थिरता फैलाने का विचार खुराक देने वाले तथा इन सबके लिए संसाधनों की व्यवस्था में लगे लोगों पर चारों तरफ से चोट करने की जरूरत है। निश्चित रूप से इस मार्ग की बाधाएं हमारी राजनीति है। तो यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई में राजनीतिक एकता कैसे कायम होॽ 

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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