हमारी जांच एजेंसियां ठीक से जांच करके वास्तविक दोषियों तक पहुंचें और उन्हें कानून के मुताबिक सजा दिलाएं, यह जितना जरूरी है, उतना ही आवश्यक यह भी है कि वे ऐसा करते हुए नजर आएं। इससे उनके तौरतरीकों और नीयत को लेकर किसी के मन में संदेह नहीं रह जाएगा।
तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के लिए होने वाले मतदान के ठीक पहले डीएमके नेता एमके स्टालिन की बेटी, पार्टी के अन्य नेताओं और उनसे जुड़े लोगों पर आयकर विभाग के छापे पड़े। इससे एक बार फिर यह आरोप लगाया जा रहा है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपने राजनीतिक हित साधने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है। इस आरोप के जवाब में कहा जा सकता है कि अगर किसी के खिलाफ शिकायतें आती हैं और कोई एजेंसी जांच शुरू करती है तो फिर उस प्रक्रिया को किसी भी बात से क्यों प्रभावित होना चाहिए। अगर बीच में कोई चुनाव वगैरह आ जाते हैं तो क्या सिर्फ इसीलिए वह जांच रोक दी जाए? 'कानून को अपना काम करने देना चाहिए' का बहुप्रचारित तर्क इस सवाल का जवाब ना में देता है और सत्तारूढ़ दल आम तौर पर विरोधियों की आलोचना को शांत करने के लिए इसी का इस्तेमाल करते आए हैं। बात तो यह भी सही है कि इन एजेंसियों का दुरुपयोग कोई आज से शुरू नहीं हुआ है। कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के दौरान ही
सीबीआई को 'पिंजरे के तोते' का 'तमगा' मिला था। लेकिन बीजेपी के नेतृत्व में केंद्र में एनडीए सरकार बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि यह पुरानी रीत बदलेगी। मगर देखने में यह आया कि ऐसी शिकायतें कम होने के बजाय और बढ़ गईं।
कुछ अरसा पहले की ही बात है। राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार अंदरूनी चुनौतियों की वजह से संकट में थी। तभी गहलोत के करीबी नेताओं पर आयकर विभाग के छापे पड़ने लगे। और बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। इस मुद्दे पर केंद्र और राज्यों के बीच टकराव तक हो चुके हैं। कुछ राज्य बगैर इजाजत सीबीआई के अपने यहां आने पर पाबंदी लगा चुके हैं। यह बात भी छिपी नहीं है कि राजनीति में आरोपों का जवाब आरोपों से देकर काम चला लिया जाता है। लेकिन यहां मूल सवाल राजनीति का नहीं, देश की जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता का है। हमारी जांच एजेंसियां ठीक से जांच करके वास्तविक दोषियों तक पहुंचें और उन्हें कानून के मुताबिक सजा दिलाएं, यह जितना जरूरी है, उतना ही आवश्यक यह भी है कि वे ऐसा करते हुए नजर आएं। इससे उनके तौरतरीकों और नीयत को लेकर किसी के मन में संदेह नहीं रह जाएगा। अब अगर यह मान भी लें कि तमिलनाडु में जिन मामलों में शुक्रवार को छापे मारे गए, वे सचमुच गंभीर थे, तब भी यह सवाल बना रहता है कि क्या ये मामले ऐसे थे कि दो-तीन दिन रुक जाने से जांच पटरी से उतर जाती? क्या छह अप्रैल को मतदान हो जाने का इंतजार ये अफसर नहीं कर सकते थे ताकि इन छापों को राजनीतिक रंग देने की कोई गुंजाइश ही न बचती?
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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