छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में शनिवार को नक्सलियों ने जिन हालात में और जिस तरह का हमला सुरक्षाबलों पर किया, वह न केवल नक्सल उन्मूलन की हमारी दीर्घकालिक नीति पर बल्कि खास ऑपरेशनों के लिए बनाई जाने वाली रणनीति से लेकर उसके अमल तक पर गहरे सवाल खड़े करता है। जो बात इस घटना को खास बनाती है वह मारे जाने या घायल होने वाले सुरक्षाकर्मियों की संख्या मात्र नहीं है, हालांकि वह संख्या भी किसी लिहाज से कम नहीं मानी जा सकती। सबसे बड़ी बात यह है कि यह सामान्य गश्त पर जा रही टीम पर किया गया हमला नहीं है। 2000 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी एक खास टारगेट के साथ एक विशेष ऑपरेशन पर भेजे गए थे। यह ऑपरेशन कई अलग-अलग स्रोतों से मिली खुफिया सूचनाओं पर आधारित था। वरिष्ठ अधिकारियों की देखरेख में पिछले कई दिनों से इस ऑपरेशन की तैयारी की जा रही थी। इतना सब कुछ होने के बाद भी बताई गई जगह पर कुछ नहीं मिला। ऐसा भी नहीं कि यह सब किसी अत्यंत दुर्गम जंगली इलाके में हुआ हो। अगले दिन पत्रकारों को मौके पर पहुंचने में न कोई खास दिक्कत हुई और न ज्यादा वक्त लगा क्योंकि कैंप और मेन रोड से घटनास्थल बमुश्किल आधे घंटे की दूरी पर बताया जाता है।
साफ है कि सूचना इकट्ठा करने और मिली सूचनाओं की प्रामाणिकता जांचने के हमारे तरीकों में बहुत बड़ी गड़बड़ियां हैं। इस मामले में न केवल सुरक्षा बलों तक गलत जानकारी विश्वसनीय ढंग से पहुंचाई गई बल्कि सुरक्षा बलों की तैयारियों और उनकी कार्रवाई से जुड़ी एक-एक सूचना भी नक्सलियों को मिलती रही। दूसरा सवाल कारगर और बड़े ऑपरेशन के बीच फर्क का है। क्या कथित नक्सली इलाकों में ज्यादा सुरक्षाकर्मियों वाले बड़े ऑपरेशनों के कारगर होने की भी संभावना रहती है? ताजा हमले ने यह जरूरत एक बार फिर रेखांकित की है कि सुरक्षा बलों के ऑपरेशन को अधिक से अधिक कारगर बनाने के तरीकों पर और ध्यान दिया जाना चाहिए। तीसरा और सबसे पुराना लेकिन बड़ा सवाल है नक्सलवाद के प्रति सरकार और प्रशासन के नजरिये का। पिछले वर्षों में इसे विशुद्ध रूप से कानून व्यवस्था की समस्या मानने का चलन बढ़ा है। इसमें दो राय नहीं कि कोई भी लोकतांत्रिक समाज बदलाव के हिंसक तरीकों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। यह भी सही है कि हिंसा के प्रयासों को सख्ती से ही कुचलना होगा। लेकिन जिन वजहों से समाज का कोई खास हिस्सा हिंसक रास्ता अख्तियार करने वालों के झांसे में आता है, उन्हें दूर करना भी हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए और हमारी यह प्राथमिकता समाज के उस हिस्से को नजर भी आनी चाहिए।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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