कृषि कानून : अनुबंध पर खेती व छोटे किसानों के लिए मायने (पत्रिका)

प्रो. एम.एस. श्रीराम, सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी, आइआइएमबी

अनुबंध खेती पर आधारित कानून सर्वाधिक जटिल मुद्दों से संबंधित है, क्योंकि इसके जरिये केंद्र सरकार ने राज्य सरकार के विषय 'कृषि उत्पादन प्रक्रिया' में दखल दिया है। कानून का पहला बिन्दु किसानों और फर्म के बीच समझौतों से जुड़ा है। ऐसे अनुबंध पूर्व निर्धारित कीमतों के आधार पर कृषि उत्पादों की डिलीवरी, गुणवत्ता मानकों से लेकर संपूर्ण कृषि उत्पादन प्रक्रिया में साझेदारी तक के हो सकते हैं। दूसरा पहलू विवाद की स्थिति में न्यायिक तंत्र को बाइपास करने से संबंधित है। यदि सरकार विवाद निस्तारण के मामले फिर से न्यायिक व्यवस्था के अधीन लाने पर सहमत होती है तो एक ही बिंदु रह जाएगा - अनुबंध का।

यह तय कर पाना काफी मुश्किल है कि क्या इस कानून में कोई बुराई है। मसलों को समझने के लिए जरूरी है कि कई प्रकार के अनुबंधों पर वास्तव में अमल होता हुआ देखा जाए। इसे तत्काल लागू करना आवश्यक नहीं है। भारतीय कृषि दो तरह से की जाती रही है - एक में किसान खुद अपनी जमीन पर खेती करता है और दूसरे में वह 'खेती करने का किराया देता है' या फसल में हिस्सेदारी लेता है। पहले मामले में नफा-नुकसान की सारी जिम्मेदारी खुद किसान की होती है। दूसरे मामले में नुकसान उसके जिम्मे, जबकि मुनाफा बांटा जाता है। इस तरह अनुबंध खेती को लेकर किसानों की चिंता वाजिब है जिसमें नफे में सीमित और नुकसान में काफी हिस्सेदारी उनकी है। अनुबंध का लाभ बेहतर बीज, तकनीक, कृषि के आधुनिक व वैज्ञानिक तौर-तरीकों और एक अनुमानित कीमत के समावेश से जुड़ा है। अनुबंध के तहत अगर किसी कारणवश शर्तें मानने की बाध्यता से छूट यानी कि फोर्स मेज्योर लागू होता है या उत्पादन व गुणवत्ता का जोखिम होता है तो वह किसानों को ही उठाना पड़ता है। ये अनुबंध दो बहुत ही असमान पक्षों के बीच के अनुबंध होते हैं, जहां एक पार्टी साधन-संपन्न और आर्थिक रूप से बेहद सक्षम है और दूसरी ओर हैं - व्यथित किसान। खेती के लिहाज से अच्छा साल तो अनुबंध कारगर, वरना दूसरे पक्ष की स्थिति बदतर। किसानों का प्रश्न यही है कि जब नुकसान में कोई अंतर नहीं पड़ रहा तो कथित सीमित फायदे की आस में वे अनुबंध करें ही क्यों? उनके पिछले अनुभव भी कुछ ठोस परिणाम देने वाले नहीं रहे।

व्यावसायिक पैमाने पर होने वाली खेती पूंजी केंद्रित कृषि उद्योगों के लिए तो मुनासिब है, पर छोटे व अत्यल्प सम्पत्ति धारकों के लिए नहीं। सार्थक निवेश के लिए भूख्ंाडों की चकबंदी होनी चाहिए। इसका अभिप्राय स्वामित्व स्थानांतरण नहीं है, बल्कि बड़े भू-भाग की उपलब्धता सुनिश्चित करना है ताकि तकनीकी निवेश के साथ बड़े पैमाने पर खेती संभव हो सके। बिना इसके कॉरपोरेट खेती की अर्थव्यवस्था फलीभूत नहीं होगी। सारांश यही है कि छोटे किसानों को सुरक्षा व संबल देने संबंधी प्रावधानों पर विचार नहीं किया गया। इस कानून में विभिन्न प्रकार के समझौतों और साथ ही विभिन्न प्रकार की फसलों के बीच भेद को रेखांकित करने की जरूरत है, जैसे कि खराब होने वाले खाद्य उत्पादों (फल-सब्जियों) और भंडारण योग्य खाद्यान्न (अनाज) का भेद। हर हाल में बेहतर यही है कि यह स्थानीय राज्य सरकारों पर छोड़ दिया जाए और केंद्र सरकार इस कानून को मॉडल कानून का रूप दे। लेकिन इसका मसौदा त्रुटिपूर्ण है। सरकार को कृषि अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने में अक्षम कृषि कानूनों को लागू करने पर बात करने की बजाय कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण एवं सकारात्मक निवेश पर ध्यान देना चाहिए।

सौजन्य - पत्रिका।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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