हमारे देश में मुख्यधारा की फिक्र के मुद्दे आमतौर पर वही बनते हैं, जिनसे समर्थ तबकों के हित-अहित जुड़े होते हैं। इसी के मुताबिक ये मुद्दे सरकारों की प्राथमिकता सूची में दर्ज होते हैं कि वह उन पर कितनी शिद्दत से ध्यान देती है। हालांकि भारतीय संविधान से लेकर सरकारी स्तर पर संचालित तमाम योजनाओं में समाज के सभी वर्गों के हित को ध्यान में रखा जाता है, मगर विडंबना यह है कि जो तबका जितना उपेक्षित और कमजोर होता है, उसके लिए बनाई गई योजनाएं उस तक उतनी ही देरी से पहुंचती हैं।
कई बार उन्हें इनका लाभ नहीं भी मिल पाता है। देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रवासी बच्चों की समस्या को इसी बिंदु से देखा जा सकता है। सुर्खियों में आने या फिर सरकार की अपनी प्राथमिकता की वजह से जनहित में कई काम सुनिश्चित हो पाते हैं और संबंधित वर्गों को उनका लाभ मिल जाता है, लेकिन प्रवासी बच्चों की स्थिति और वंचनाओं पर शायद ही कभी किसी का ध्यान जा पाता है। इस लिहाज से देखें तो मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर सभी राज्यों के लिए अहम निर्देश जारी किए। अदालत ने सभी राज्यों से कहा से कि वे अपने शासन क्षेत्र में प्रवासी बच्चों और प्रवासी श्रमिकों के बच्चों की संख्या के साथ-साथ उन्हें मिलने वाले लाभों से संबंधित समूचा ब्योरा और आंकड़ा मुहैया कराएं।
गौरतलब है कि बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले एक संगठन की ओर से दायर याचिका में मुख्य रूप से कोविड-19 महामारी के दौरान संविधान के अलग-अलग अनुच्छेदों में दर्ज प्रावधानों के तहत प्रवासी बच्चों और प्रवासी परिवारों के बच्चों के मौलिक अधिकारों को लागू करने का मांग की गई है। दरअसल, प्रवासी श्रमिकों के शहरों में जाने के क्रम में उनके साथ गए, गांव में रह गए या वैसे बच्चे जो अपनी स्थितियों की वजह से मजबूरी में मजदूरी के लिए पलायन करते हैं, उनकी समस्याएं अनदेखी रह जाती हैं।
जबकि मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा यही बच्चे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और अपने न्यूनतम अधिकारों से भी वंचित हो गए हैं। स्वास्थ्य सेवा, उचित पोषण, शिक्षा तक पहुंच से वंचित ऐसे बच्चों के रहने और जीने से लेकर सभी जीवन-स्थितियां बेहद तकलीफदेह हो गई हैं। पिछले साल पूर्णबंदी के चलते शहरों से लाखों प्रवासियों का गांवों की ओर पलायन हुआ था। उनके लिए सरकारों की ओर से सीमित स्तर पर कुछ उपाय किए गए थे, लेकिन पूर्णबंदी का प्रवासी बच्चों पर जैसा प्रभाव पड़ा, उस पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी गई।
सवाल है कि इस उपेक्षा, अनदेखी या उदासीनता के लिए मुख्य रूप से किसकी जिम्मेदारी बनती है! कोई भी सरकार अपने कार्यक्षेत्र के सभी नागरिकों के लिए समान बर्ताव और भाव के साथ काम करने के सिद्धांत पर बनी होती है। लेकिन विडंबना यह है कि उसका ध्यान उन तबकों या लोगों पर ज्यादा जाता है, जो अपने हित के लिए सक्रिय होते हैं या आवाज उठाते हैं।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सक्रियता और जागरूकता संबंधित व्यक्ति या समुदाय के सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण पर निर्भर होती है, जो उसे कई बार अपनी पृष्ठभूमि से मिली होती है या फिर वह कई सुविधाओं के बूते उसे अर्जित करता है। जबकि संसाधनों, सुविधाओं और अवसरों के अभाव की वजह से बहुत सारे वैसे लोग अपने अधिकारों के बारे में ठीक से जान-समझ भी नहीं पाते, जिनके लिए संविधान या योजनाओं में कई तरह के प्रावधान किए गए होते हैं। यही वजह है कि वे अपने कई अधिकारों से भी वंचित रह जाते हैं। हालांकि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अलग-अलग प्रभावित वर्गों की पहचान करके उनके हक उन्हें मुहैया कराने की व्यवस्था करे।
सौजन्य - जनसत्ता।
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