अजय शाह
कोविड-19 महामारी के कारण हमारे आसपास एक असाधारण स्वास्थ्य संबंधी त्रासदी घटित हो रही है। यह स्वाभाविक रूप से एक आर्थिक संकट की आशंका भी पैदा करता है। इस आलेख में हम इस संभावना पर बात करेंगे कि शायद पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष आर्थिक गतिविधियां ज्यादा बुरी तरह प्रभावित न हों। कंपनियों को आशंकित होने के बजाय खुद को मजबूत बनाने पर काम करना चाहिए।
देश में महामारी विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुकी है और इसने ऐसा स्वास्थ्य संकट उत्पन्न किया है जैसा देश के इतिहास में पहले कभी महसूस नहीं किया गया। हमारे आसपास ऐसी घटनाएं घट रही हैं जो किसी का भी दिल दहला देने में सक्षम हैं। स्वास्थ्य बचाव और उपचार का खेल है लेकिन इस मामले में दोनों ही काम नहीं आ रहे हैं। हमारे चारों तरफ दुख और निराशा की खबरें छाई हुई हैं। स्वास्थ्य संबंधी जरूरतें हमारे स्वास्थ्य सेवा तंत्र की क्षमताओं से परे जा चुकी हैं। स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों के सामने नैतिक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। व्यवस्थित प्रोटोकॉल की अनुपस्थिति में उन्हें गंभीर मरीजों को पहले चिकित्सा देने का निर्णय स्वयं लेना पड़ रहा है।
ऐसे में प्राथमिक ध्यान स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने और संक्रमण दर कम करने पर केंद्रित है। हम स्वाभाविक रूप से पिछले वर्ष के अनुभव से तुलना करते हैं। परंतु स्वास्थ्य संकट पिछले वर्ष से बुरा है तो क्या आर्थिक स्थिति भी गत वर्ष से खराब होगी? बहरहाल ऐसी पांच वजह हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि आर्थिक हालात गत वर्ष से बेहतर रहेंगे।
1. संक्रमण का जोखिम कम: गत वर्ष देश की समूची आबादी को इस संक्रमण की आशंका थी। बीते एक वर्ष के दौरान कई लोग इस बीमारी से जूझे और उनमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई। सीरोप्रीवलेंस अध्ययन में इसे साफ देखा जा सकता है। इसके अलावा हर 100 लोगों पर टीके की नौ खुराक लोगों को दी चुकी हैं। यह तादाद तेजी से बढ़ रही है। जाहिर है हम गत वर्ष से बेहतर स्थिति में हैं। बीमारी और टीकों पर शंका जताने वाले भी कम हुए हैं। यदि स्वास्थ्य नीति रोज टीके की 35 लाख खुराक देती रहे तो भी 365 दिन में हम प्रति 100 व्यक्तियों पर 100 खुराक का लक्ष्य हासिल कर लेंगे।
2. स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर: गत वर्ष स्वास्थ्य सेवा ढांचा ढह गया था। निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता जो देश की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं, उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। लॉकडाउन, प्रक्रियाओं और ग्राहकों के स्तर पर भी उन्हें समस्या हुई। गैर कोविड गतिविधियां ध्वस्त हो गईं क्योंकि सेवाप्रदाताओं और उपयोगकर्ताओं दोनों में हिचक थी। जानकारी के अभाव ने भी कोविड-19 के इलाज को प्रभावित किया। संभवत: स्वास्थ्य सेवा की गड़बड़ी की वजह से बड़ी तादाद में मौत हुईं। इस बार स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव बहुत अधिक है लेकिन वे पूरी क्षमता से काम कर रही हैं। प्रोटोकॉल, प्रक्रियाओं, आपूर्ति और स्वास्थ्य कर्मियों की कोई कमी नहीं है।
3. नीति निर्माता ज्यादा अनुभवी हैं: गत वर्ष नीति निर्माताओं को अनिश्चितता का सामना करना पड़ा था। बहुत बड़े सवालों का सामना सीमित सूचनाओं के आधार पर करना पड़ रहा था। भारत ने दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन लगाने वाले देशों में शामिल था लेकिन इसके बावजूद बीमारी तेजी से फैली। इस बार नीति निर्माताओं के पास ज्यादा अनुभव हैं और वे समझ चुके हैं कि सरकार अपनी ताकत से मंदिर, सिनेमाघर आदि बंद कर सकती है लेकिन ज्यादा सख्ती बरतना अर्थव्यवस्था को ज्यादा प्रभावित करता है और बीमारी को कम। अब हम यह जान चुके हैं कि वायरस रात में अधिक सक्रिय नहीं रहता।
4. कंपनियां ज्यादा अनुभवी हैं: गत वर्ष कंपनियां एकदम चकित रह गई थीं। कंपनियों को अचानक लॉकडाउन लगने के बाद मजबूरन घर से काम करने जैसी व्यवस्थाएं करनी पड़ीं और प्रबंधन की नई प्रक्रियाएं तलाशनी पड़ीं। कंपनियों के परिचालन में कठिनाई आई। वस्तुओं के भंडारण और उन्हें लाने ले जाने में भी समस्या हुई। सामाजिक दूरी वाले माहौल में अर्थव्यवस्था ने वस्तुओं और सेवाओं की खरीद में बदलाव अनुभव किया। इस बार चौंकाने जैसा कुछ नहीं है। कंपनियों को पता है कि क्या करना है इसलिए महामारी के दौर में उन्हें पता है कि कैसे काम करना है।
5. विश्व अर्थव्यवस्था वापसी कर रही है: गत वर्ष विश्व अर्थव्यवस्था में चौतरफा निराशा थी। कोई नहीं जानता था कि टीके और इलाज कब खोजे जा सकेंगे और हालात सामान्य हो सकेंगे। परंतु अब अनिश्चितता कम है और दृष्टिकोण सकारात्मक है।
ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया या जर्मनी जैसे देशों ने जन स्वास्थ्य यानी महामारी से बचाव पर जोर दिया। कुछ देश जो बचाव में कमजोर रहे उन्होंने टीकाकरण के जरिये इसकी क्षतिपूर्ति की। अमेरिका और ब्रिटेन के रूप में दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने प्रति 100 व्यक्ति 60 खुराक टीके दिए हैं।
भारत की बात करें तो आर्थिक संपर्क की वजह से उसके लिए अमेरिका और ब्रिटेन अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। दोनों देशों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 24 लाख करोड़ डॉलर है। अमेरिका में टीकाकरण, चुनाव के कारण प्रशासन सामान्य होने और असाधारण स्तर की विस्तारवादी राजकोषीय नीति की बदौलत अर्थव्यवस्था में नाटकीय सुधार हुआ। दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन ने मार्च 2021 में 18.3 फीसदी की जीडीपी वृद्घि हासिल की।
जिन देशों ने कोविड-19 पर विजय हासिल की है उनकी तादाद इतनी है कि वे भारतीय वस्तुओं सेवाओं के निर्यातकों के लिए मददगार साबित हों। ताजा आंकड़ों के मुताबिक जनवरी 2021 में भारत का मासिक गैर तेल और गैर स्वर्ण निर्यात 42 अरब डॉलर था जो महामारी के पहले के स्तर की तुलना में ठीक था लेकिन महामारी पूर्व के 45 अरब डॉलर प्रति माह के उच्चतम स्तर से कम था। संभव है कि आने वाले महीनों में यह 45 अरब डॉलर मासिक का स्तर पार कर जाएगा। फरवरी 2021 में चीन से होने वाला अमेरिकी आयात सालाना आधार पर 49 प्रतिशत अधिक था। देश के नीति निर्माताओं को व्यापारिक गतिरोध समाप्त करने चाहिए ताकि निर्यात से उत्पन्न मांग के बल पर वृद्घि हासिल की जा सके।
ऐसे में अर्थव्यवस्था का परिदृश्य यही है कि निर्यात के दम पर मजबूत वृद्घि हासिल की जाए। कई संकटग्रस्त कंपनियां आकर्षक मूल्यांकन पर उपलब्ध हैं। घर से काम की व्यवस्था के कारण कई कंपनियों की उत्पादकता में मजबूती आई है और कई प्रकार के श्रमों का मूल्य आकर्षक हुआ है। यह वक्त है माहौल के मुताबिक सोच बदलकर कंपनियों को रचनात्मक मजबूती प्रदान करने का।
(लेखक स्वतंत्र आर्थिक विश्लेषक हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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