उम्मीद रखें‚ सुबह भी होगी (राष्ट्रीय सहारा)


निसंदेह जिस पर विपत्ति आती है उसका दर्द वही जानता है। हम सब महसूस कर सकते हैं‚ लेकिन भुगतना तो उन्हीं को पड़ता है। जिनको भुगतना पड़ रहा है उनके सामने आप चाहे नीति और विचार के जितने वाक्य सुना दें तत्काल उनका मानस उसे ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता। चाहे कितनी बड़ी आपदा हो‚ विनाश का हाहाकार हो‚ चारों ओर मौत का भय व्याप्त हो‚ मनुष्य के नाते हमें भविष्य के लिए आशा की किरण की ही तलाश करनी होती है। अगर हमने उम्मीद खो दी‚ हमारा हौसला पस्त हो गया‚ साहस ने ही जवाब दे दिया तो फिर किसी आपदा पर विजय पाना कठिन हो जाएगा। 


कोरोना की महाआपदा से घिरे देश में मचा कोहराम कोई भी देख सकता है। जिनके अपने या अपनों की चिंताएं जली हैं उनको कहें कि हौसला बनाए रखिए.ये भी दिन गुजर जाएंगे‚ अच्छे दिन आएंगे तो ये बातें उनके गले आसानी से नहीं उतरेंगी‚ बल्कि इस समय शूल की तरह चुभती हुई भी लगेगी। मैंने अपने फेसबुक पोस्ट में लोगों से अपना हौसला बनाए रखने‚ अपनी सुरक्षा करने के साथ दूसरों को भी हौसला देने की अपील की थी। बड़ी संख्या में उत्तर सकारात्मक थे पर कुछ जवाब ऐसे भी थे जिनको हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसी ने लिखा कि अगर घर के सदस्य की या रिश्तेदार की चिता जल रही हो तो ये बातें किस काम की। उनके अनुसार एक ही दिन में कई चिताएं जला कर लौटे हैं। ये दिन भी गुजर जाएंगे पर एक मित्र ने लिखा कि पता नहीं तब तक हम जीवित होंगे या नहीं। 


ये दोनों बातें निराशाजनक लग सकती हैं किंतु कोरोना से जिस प्रकार का घटाटोप कायम हुआ है‚ उसमें सामान्य मनुष्य की यह स्वाभाविक दारुûण अभिव्यक्ति है। जिस तरह ऑक्सीजन और औषधियों के लिए देशभर के अस्पतालों में हाहाकार मचा है‚ ऑक्सीजन के अभाव में लोगों के घुट–घुट कर दम तोड़ने के समाचार आ रहे हैं‚ अस्पतालों में मरीज को भर्ती कराने के लिए सौ जुगत करनी पड़ रहीं है; उसमें हर घर मिनट–मिनट डर और आतंक के साए में जी रहा है। मेरे व्हाट्सएप मैसेज के उत्तर में एक जानी–मानी एंकर ने लिखा कि सर‚ हम सब कुछ कर रहे हैं फिर भी हर क्षण इस डर में जी रहे हैं कि पता नहीं क्या होगा‚ बाहर कदम रखने में डर लग रहा है। यह किसी एक व्यक्ति की आवाज नहीं है पूरे देश का अंतर्भाव यही है। मैंने जितने व्हाट्सएप किए; उनमें से ज्यादातर के उत्तर कहीं–न–कहीं अंतर्मन में व्याप्त भय और भविष्य की चिंता से लवरेज थे। कोई कुछ कहे लेकिन इस समय पूरा भारत ऐसे ही घनघोर निराशा में जी रहा है और चिंता का शिकार है। हम सबने अपने जीवन में कई महामारियों का सामना किया है‚ लेकिन एक–एक व्यक्ति को इतने दहशत में जीते कभी नहीं देखा। कोरोना के बारे में चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों के एक बड़े समूह की राय है कि यह इतनी बड़ी बीमारी है नहीं जितनी बड़ी बन या बना दी गई है। किंतु यह अलग से विचार कर विषय है। भारत में डर और निराशा का सामूहिक अंतर्भाव कोरोना की आपदा से बड़ी आपदा है। 


 प्रश्न है ऐसी स्थिति में हमारे सामने रास्ता क्या हैॽ ऐसे मुश्किल वक्त में कोई सरल उत्तर व्यवहारिक रास्ता नहीं हो सकता‚ लेकिन जीवन क्रम की ऐतिहासिक सच्चाई को भी हम नकार नहीं सकते। सृष्टि के आरंभ से मनुष्य ने न जाने कितनी आपदाएं‚ विपत्तियां‚ विनाशलीलाएं देखीं‚ उनका सामना किया और उन सबसे निकलते हुए जीवन अपनी गति से आगे बढ़ती रही। यही पूरी सृष्टि का क्रम रहा है। प्रलय में सब कुछ नष्ट हो जाता है। बावजूद वहां से फिर जीवन की शुरु आत होती ही है। हर प्रलय के बाद नवसृजन यही जीवन का सच है। जो ई·ार में विश्वास करते हैं यानी आस्तिक हैं वे मानते हैं कि हर घटित के पीछे ईश्वरीय महिमा है। इस धारणा से यह उम्मीद भी पैदा होती है कि ईश्वर ने बुरे दिन दिए हैं तो वही अच्छे दिन भी लाएगा। आप ईश्वर पर विश्वास न भी करें तो प्रकृति की गति और उसके नियमों को मानेंगे ही। अगर हर घटना की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो इसमें अच्छी बुरी दोनों प्रकार की घटनाएं शामिल हैं। इस सिद्धांत में ही यह सच अंतÌनहित है कि बुरी घटना की विपरीत प्रतिक्रिया अच्छी ही होगी। तो भौतिकी का यह सिद्धांत भी उम्मीद जगाती है कि निश्चित रूप से निराशा और हताशा के वर्तमान घटाटोप से प्रकृति अपनी प्रतिक्रियाओं द्वारा हमें उबारेगी। षड्दर्शनों के विद्वान आपको इसे ज्यादा बेहतर तरीके से समझा सकेंगे। ॥ हमारे यहां बुजुर्ग धर्म और इतिहास से ऐसी कहानियां बचपन से सुनाते थे‚ विद्यालयों की पाठ पुस्तकों में पढ़ाई जातीं थी‚ जिनमें जीवन पर आइÈ विपत्तियां और उसमें अविचल रह कर जूझने और विजय पाने की प्रेरणा मिलती थी। इस दौर में साहित्य‚ धर्म‚ दर्शन‚ इतिहास‚ समाजशास्त्र आदि विषयों की ओर युवाओं की रुûचि घटी है‚ स्कूली पाठ्यपुस्तकों से भी वैसी कथाएं गायब हैं और इन सबका परिणाम हमारे सामूहिक मनोविज्ञान पर पड़ा है‚ लेकिन जो कुछ हम व्यवहार में भुगतते हैं वह भी हमें सीख देता है। हमारे आसपास ही ऐसे परिवार होंगे या स्वयं हम ही वैसे परिवार से आते होंगे जहां किसी बीमारी या घटना में एक साथ बड़ी संख्या में हमारे प्रियजन चल बसे। ऐसी त्रासदियों के व्यावहारिक और मानसिक संघात से पीडि़त होते हुए भी हम अपने को संभालते और जीवन की गाड़ी को आगे खींचते हैं। यही जीवन है। जब विनाशकारी तूफान आता है तो फसल नष्ट हो जाती हैं.बड़े–बड़े पेड़ भी जड़ों से उखड़ जाते हैं.लगता है पूरी प्रकृति बिखर गई हो लेकिन धरती बंजर नहीं होती। बीज फिर से अंकुरित होते हैं‚ फसल फिलहाल आती हैं‚ वनस्पतियां फिर अठखेलियां करने लगती हैं। मनुष्य अपनी जिजीविषा में फिर फसल लगाने निकलता है और सफल होता है। 


 जीवन क्रम इसी तरह आगे बढ़ता है। प्रकृति और जीवन के ये दोनों पहलू सच हैं। इसका कोई एक पहलू पूरा सच नहीं हो सकता। तूफान और विनाश भी प्रकृति चक्र के अंगभूत घटक हैं तो फिर नये सिरे से बीजों का अंकुरण और पौधों का उगना भी। कोरोना अगर इस चक्र में तूफान है तो यकीन मानिए इसके बाद फिर जीवन की हरियाली लहलहाती दिखेगी। अभी रास्ता यही है कि हम स्वयं और परिजनों को सुरक्षित रखें‚ दूसरों की सुरक्षा को खतरे में ना डालें तथा अपना हौसला बनाए रखते हुए एक–दूसरे की मदद करें व बाकी लोगों की भी हौसलाअफजाई करें।

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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