महामारी से मुकाबला : कोरोना से निर्णायक लड़ाई का वक्त (अमर उजाला)

नीरजा चौधरी

यह अप्रत्याशित ही है कि दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को अस्पतालों में ऑक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति न होने के कारण आड़े हाथ लेना पड़ा। बेतहाशा दबाव में काम कर रहे दिल्ली के अस्पताल ऑक्सीजन की अतिरिक्त आपूर्ति की गुहार लगा रहे हैं, क्योंकि सैकड़ों लोग टूटती सांसों के साथ अस्पताल पहुंच रहे हैं और उनमें से अनेक लोग ऑक्सीजन की कमी के चलते दम तोड़ चुके हैं। भारत शायद ही कभी संताप, भय और पीड़ा से उपजे ऐसे दृश्यों का गवाह बना, जैसा कि पिछले कुछ दिनों में दिल्ली में नजर आया। अतीत में अदालत ने नागरिकों की पीड़ा को लेकर इतनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। उसके तीखे शब्दों ने हजारों बेबस मरीजों को आवाज दी, जिन्हें अन्यथा समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें राहत कैसे और कहां से मिलेगी। 

लगता है कि हम किसी युद्ध के बीच में है। चिकित्सा व्यवस्था पर भारी दबाव है। डॉक्टर थक चुके हैं। और अब ऑक्सीजन, वैक्सीन तथा जीवनरक्षक दवाओं की कम आपूर्ति का संकट पैदा हो गया है। हम कोरोना की शुरुआत के बाद आज दुनिया में सर्वाधिक दैनिक संक्रमण के आंकड़े तक पहुंच चुके हैं। 20 अप्रैल को पूरे देश में पहली बार एक दिन में 3.14 लाख लोग संक्रमित पाए गए थे, जो दुनिया में सर्वाधिक था। कोर्ट के ये शब्द- 'सरकार हकीकत का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी', 'वह सिर्फ समय जाया कर रही है', 'इसका मतलब है कि लोगों की जिंदगी सरकार के लिए मायने नहीं रखती', 'आपको उद्योगों की फिक्र है, जबकि लोग मर रहे हैं'-सरकार के लिए चेतावनी हैं कि उसे अब वह करना चाहिए, जिसके लिए उसे चुना गया है।


अंत में अदालत नागरिकों के अधिकारों के संरक्षक के रूप में सामने आई, जो कि उसका दायित्व भी है। आखिर जब अदालतें नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा नहीं करेंगी, तो फिर कौन करेगा? जीवन के अधिकार का इससे बड़ा उल्लंघन क्या हो सकता है कि लोग अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी के कारण मर रहे हैं? हमें कोरोना की गिरफ्त में आए एक साल से अधिक हो गए हैं। लोगों को उम्मीद थी कि केंद्र और राज्य की सरकारें इस अवधि का उपयोग ऐसे  संकट से निपटने के लिए सुविधाएं बढ़ाने में करेंगी, जो कि स्वतंत्र भारत के बाद का संभवतः सबसे भीषण संकट है, जिसका हमने सामना किया और जो जल्द दूर होता नहीं दिख रहा है। पर सरकार वैसी तैयार नहीं दिखी, जैसा कि उसे होना चाहिए था। उसे दूसरी लहर के लिए पहले से तैयार होना चाहिए था। 


निश्चय ही यह लहर अचानक तेज हुई और उसने स्वास्थ्य ढांचे को परास्त कर दिया। लेकिन यह भी सच है कि फरवरी के मध्य से चेतावनी मिलने लगी थी। दुनिया के कई हिस्से नवंबर, 2020 में ही दूसरी लहर की चपेट में आ गए थे। इसके भारत आने की पूरी आशंका थी। यह मानना कि भारतीयों में विशेष तरह की प्रतिरोधक क्षमता है और वे इस लहर का सामना कर लेंगे, सिवाय अहंकार और लापरवाही के कुछ और नहीं था। कोई भी सरकार खासतौर से किसी महामारी के बीच इस तरह बेपरवाह नहीं हो सकती। मार्च के आते-आते राजनीतिक रैलियां होने लगीं और हालात बिगड़ने लगे। जब नेता बिना मास्क पहने हुए हजारों लोगों की रैलियां कर सकते हैं, तो इससे गंभीर तो कुछ नहीं हो सकता। यही बात हरिद्वार के कुंभ मेले को लेकर भी कही गई।


भाजपा के शीर्ष नेताओं ने बंगाल का चुनाव इस तरह से लड़ा है, मानो यह उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न हो, जबकि पूरे भारत में लोग सचमुच जिंदगी और मौत से लड़ रहे थे। ऐसा ही ममता बनर्जी ने किया। तो अब क्या हो? इसका जवाब है कि सबको एकजुट होकर काम करना होगा। अखिल भारतीय स्तर की एक शीर्ष कमेटी की जरूरत है, जिसे निर्णय लेने के लिए सक्षम किया जाए। आखिर जीएसटी के लिए काउंसिल है। कोविड के लिए ऐसी काउंसिल कैसी होगी? जीएसटी काउंसिल की तरह इसमें भी मुख्यमंत्रियों को शामिल किया जा सकता है। हमारे पास कार्यबल है, पर क्या वास्तव में वार रूम है, जो चौबीस घंटे हालात पर नजर रख सके और राज्यों की जरूरतों के अनुरूप समन्वय कर सके? यदि अदालत के निर्देश के बावजूद औद्योगिक इकाइयों ने ऑक्सीजन का इस्तेमाल नहीं रोका, तो ऐसा क्यों हुआ? ऑक्सीजन टैंकरों के परिवहन में अड़चन है, तो इसे कैसे दूर किया जा सकता है? मदद कहां से हासिल की जा सकती है? 


वैक्सीन की रणनीति में भी बदलाव की जरूरत है। मध्य जनवरी के बाद से अब तक 12 करोड़ लोगों को वैक्सीन दी जा चुकी है। इस साल के अंत तक हर्ड इम्युनिटी (60 फीसदी आबादी) हासिल करने के लिए हमें हर महीने 14 करोड़ लोगों का टीकाकरण करना होगा। वैक्सीन के इनपुट की कमी (यह अमेरिका और चीन से आता है) और वैक्सीन की कमी- अब हालांकि रूसी स्पुतनिक तथा अन्य विदेशी वैक्सीन को मंजूरी दे दी गई है- योजना और प्रबंधन की कमी को ही दिखाती है। यह विडंबना ही है कि भारत, जिसने वैक्सीन निर्यात की, अब आयात के लिए मजबूर है। बिना किसी ठोस योजना के एक मई से शुरू होने वाला 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों का टीकाकरण कालाबाजारी, लंबी लाइनें और भ्रम को बढ़ा सकता है। जो देश 90 करोड़ मतदाताओं के लिए चुनाव का प्रबंध कर सकता है, वह निश्चय ही अपनी आबादी के टीकाकरण के लिए कुछ हफ्तों में तैयारियों को अंजाम दे सकता है।


साढ़े चार दशक पहले  1977 में जनता पार्टी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण ने 'पैदल डॉक्टर' का विचार आगे किया था, ताकि भारत के प्रत्येक गांव तक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा पहुंच सके। युवाओं की फौज को बुनियादी चिकित्सा संबंधी कौशल का प्रशिक्षण देने से सरकार को किसने रोका है, जो कि घर-घर जाकर ब्लड प्रेशर और शुगर की जांच कर सकते हैं और ऑक्सीजन तथा वैक्सीन लगा सकते हैं। हमें कुछ अलग हटकर विकल्पों पर विचार करना होगा। यह तो भविष्य की बात है। लेकिन अभी एमबीबीएस के प्रथम और द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को टीकाकरण अभियान से जोड़ा जा सकता है। एक और बात है, आज केंद्र सरकार और विपक्षी दलों की शासित सरकारों के बीच विश्वास की कमी है, जो समस्या को ही बढ़ा रहा है। श्रेय लेने की होड़ भारतीयों की जिंदगी पर भारी पड़ सकती है।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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