प्रसेनजित दत्ता
गरीब देशों के साथ अमीर देशों में भी कोविड-रोधी टीके की किल्लत होने से लोग आधुनिक विनिर्माण तौर-तरीकों, आपूर्ति शृंखला सिद्धांत एवं नव-उदारवादी अर्थशास्त्र की सीमाओं के पुनर्परीक्षण को मजबूर हो रहे हैं। दुनिया भर की असरदार आवाज न केवल कोविड संकट में सरकारों की प्रतिक्रिया बल्कि महामारी खत्म होने के बाद की दुनिया में मौजूदा रूढिय़ों के औचित्य को लेकर भी सवाल उठा रही हैं।
इन सवालों पर विस्तार से चर्चा करने की जरूरत होगी। ये सवाल इस लिहाज से भी अहम हैं कि भविष्य में नीति-निर्माण के दौरान भी इनका ध्यान रखने की जरूरत होगी।
पर्याप्त संख्या में टीके उपलब्ध न होने से अधिकांश देश परेशान हैं। इनमें कनाडा और यूरोपीय संघ जैसे समृद्ध देश भी शामिल हैं जिन्होंने अपनी आबादी से अधिक संख्या में टीकों की अग्रिम बुकिंग कर रखी थी। टीके की किल्लत से वे गरीब देश भी जूझ रहे हैं जो कोवैक्स गठबंधन पर आश्रित हैं। खुद भारत भी टीकों के अभाव से गुजर रहा है जो दुनिया को सस्ते दाम वाले टीकों का आपूर्तिकर्ता बनता रहा है।
केंद्र सरकार की खराब तैयारी ने न केवल भारत को टीके की पर्याप्त खुराकों से दूर कर दिया है बल्कि यह अभाव आने वाले कई महीनों तक बना रहेगा। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार ने इसका जिम्मा राज्य सरकारों एवं निजी कंपनियों पर डाल दिया है।
केवल तीन देश- अमेरिका, ब्रिटेन एवं चीन ही ऐसे हैं जो कोविड-रोधी टीके की उपलब्धता के मामले में सहज स्थिति में हैं। कुछ छोटे देश बेहतर स्थिति में नजर आते हैं लेकिन आर्थिक रूप से संपन्न होने के साथ वे कम जनसंख्या एवं छोटे आकार वाले देश भी हैं।
अमेरिका, ब्रिटेन एवं चीन की सरकारों ने टीका उत्पादन के लिए वित्त मुहैया कराने, क्षमता विस्तार एवं उत्पादन निगरानी में बड़ी भूमिका निभाई। कोविड संकट को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तमाम आशंकाओं के बावजूद अमेरिका ने संभावित टीका उम्मीदवारों पर नजर रखी और चार अलग-अलग फर्मों को आपूर्ति के ठेके दिए। इसके अलावा टीका विनिर्माताओं को इतना भुगतान किया गया कि क्लिनिकल परीक्षण पूरा करने के पहले ही वे उसे प्राथमिकता पर टीके मुहैया कराएं। उसने ठेके पर टीका विनिर्माण करने वाले प्रतिष्ठानों का नियंत्रण भी अपने हाथों में ले लिया। अमेरिकी सरकार ने रक्षा उत्पादन अधिनियम लागू कर तय किया कि कोविड टीकों में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता पहले घरेलू मांग की पूर्ति करें।
ब्रिटेन की सरकार इस हद तो नहीं गई लेकिन उसने टीका फर्म एस्ट्राजेनेका के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया कि उसे तैयार टीकों के वितरण में प्राथमिकता मिले। एस्ट्राजेनेका ने ऑक्सफर्ड रिसर्च ग्रुप के साथ मिलकर कोविशील्ड टीके का विकास किया है। चीन ने हमेशा ही टीका विनिर्माताओं को नियंत्रण में रखा है और कोविड टीके के मामले में भी उसने देश की चार कंपनियों को टीका मुहैया सुनिश्चित करने को कहा। भले ही ये विनिर्माता अमेरिकी जैसी तेजी से टीकों की आपूर्ति नहीं कर पाए लेकिन इसकी एक वजह तो यह भी रही है कि चीन ने काफी हद तक इस घातक महामारी के प्रसार पर काबू पा लिया है। इन विनिर्माताओं की क्षमता इतनी हो चुकी है कि वे जरूरत पडऩे पर तेजी से उत्पादन कर सकें।
कनाडा और यूरोपीय संघ ने अलग कारणों से खुद को डांवाडोल स्थिति में पाया। बदलती जरूरतों के हिसाब से चार बार टीकों का ऑर्डर देने और अग्रिम भुगतान करने के बावजूद कनाडा के पास जरूरी टीकों की कमी है। इस समस्या की एक वजह तो यह है कि कनाडा ने पिछले वर्षों में अपनी घरेलू, सार्वजनिक कोष से संचालित टीका उत्पादक कंपनियों को खत्म होने दिया है। आज के समय में कनाडा टीकों के लिए पूरी तरह वैश्विक आपूर्तिकर्ताओं पर आश्रित है।
यूरोपीय संघ के पास टीका विनिर्माण की क्षमता तो है लेकिन उसने कुछ ऐसे दांव लगाए जो गलत साबित हो गए। एक समूह के तौर पर यूरोपीय संघ ने थोड़े विलंब से आपूर्ति के ऑर्डर दिए हैं लिहाजा उसे इंतजार करना होगा कि विनिर्माता पहले अमेरिका, ब्रिटेन एवं कनाडा को टीका मुहैया करा लें। इसके अलावा यूरोपीय संघ की इस बात के लिए भी कड़ी आलोचना हुई है कि उसने अमेरिका एवं ब्रिटेन के उलट काफी सुस्ती दिखाई और कड़ी सौदेबाजी करते हुए एक मुश्किल साझेदार साबित हुआ। वैसे संघ के कुछ सदस्य देशों ने मामले को अपने हाथ में लेते हुए खुद ही टीकों का इंतजाम किया है।
टीके की किल्लत को लेकर यूरोपीय संघ की प्रतिक्रिया काफी हद तक भारत सरकार की ही तरह रही है। वे भी स्थानीय टीका विनिर्माताओं को घरेलू जरूरतें पूरा करने के बाद ही वैश्विक आपूर्ति करने का दबाव डाल रहे हैं। जहां तक भारत की खराब हालत का सवाल है तो इसे अधिक बयां करने की जरूरत नहीं है। सरकार ने तीन बड़ी गलतियां की हैं। पहली, उसने अपने सभी विकल्पों को दो खांचों में ही बांट दिया जबकि छोटी आबादी वाले देश भी कई विनिर्माताओं को ऑर्डर देकर अपना जोखिम कम करने में लगे हुए थे। इससे भी बड़ा अपराध यह था कि दोनों विनिर्माताओं के पास इतनी बड़ी मात्रा में उत्पादन की क्षमता होने को नहीं परखा गया। तीसरी गलती यह थी कि देश की कुल जरूरतों के हिसाब से ऑर्डर नहीं दिए गए। यह एक बेवकूफाना सोच थी और देश भीषण मानवीय पीड़ा एवं आर्थिक क्षति के तौर पर इसकी बड़ी कीमत चुकाने जा रहा है।
इस बीच हमारे टीका विनिर्माताओं ने भी गलत गणना की और टीके के उत्पादन के लिए जरूरी कच्चे माल का जिम्मा सिर्फ गिनी-चुनी अमेरिकी कंपनियों को ही दे दिया। इनमें से किसी भी कच्चे माल को बनाना बहुत मुश्किल नहीं है। वर्ष 2020 की शुरुआत में ही सभी टीका विनिर्माताओं को पता चल गया था कि महामारी काल में एक या दो आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर रहने से बरबादी ही होगी। इसके बावजूद भारतीय टीका उत्पादकों ने इस खतरे को कम करने के प्रयास नहीं किए। न सिर्फ टीका फर्में बल्कि भारतीय औषधि विनिर्माता भी दवा निर्माण सामग्रियों (एपीआई) को लेकर ऐसी ही मुश्किल झेल रहे हैं। कारण यह है कि एपीआई की अधिकांश आपूर्ति चीन से ही होती है।
अब उठ रहे सवाल कुछ इस तरह हैं। क्या भारत जैसे देशों ने दवा एवं टीका उत्पादन जैसे अहम क्षेत्रों में सार्वजनिक वित्त-पोषित इकाइयों की भूमिका कम करने को लेकर अतिवादी कदम उठाया है? क्या जरूरी दवाओं एवं टीकों के कच्चे माल के लिए एक-दो देशों या आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर रहने के पुराने सिद्धांत का अब कोई मतलब रह गया है? तीसरा, उस स्थिति में मुक्त बाजार एवं वैश्वीकरण की क्या सीमाएं हैं जब मुट्ठी भर वैश्विक आपूर्तिकर्ता ही हैं जो दबदबा बढ़ाने की जुगत में लगे रहते हैं। इन सवालों के आसान जवाब नहीं हो सकते हैं।
(लेखक बिज़नेस टुडे एवं बिज़नेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार फर्म प्रोसैकव्यू के संस्थापक-संपादक हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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