असम में हिमंत विश्व शर्मा के सामने हैं अनेक चुनौतियां (बिजनेस स्टैंडर्ड)

आदिति फडणीस 

आखिरकार वह घटित हुआ जिसकी प्रतीक्षा थी। कांग्रेस नेता और असम के मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय तरुण गोगोई के अत्यंत विश्वासपात्र रहे हिमंत विश्व शर्मा असम के नए मुख्यमंत्री बन गए हैं। इस पद तक पहुंचने की उनकी राजनीतिक यात्रा एक दिलचस्प कहानी बयां करती है। शर्मा ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन (आसू) से की थी लेकिन उन्होंने पार्टी छोड़कर ऐसा कदम उठाया जिसने इतिहास कायम किया। सन 2001 के विधानसभा चुनाव मेंं उन्होंने असम गण परिषद के भृगु कुमार फुकन को पराजित किया। वह फुकन के संरक्षण में ही राजनीति में आए थे। बाद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और धीरे-धीरे पूरे असम में पार्टी का चेहरा बन गए। वह संगठन में आगे बढ़े और समय के साथ तरुण गोगोई के विश्वसनीय बन गए। यह रिश्ता पिता और पुत्र के रिश्ते जैसा हो सकता था लेकिन गोगोई का अपना एक बेटा था जो असम से सांसद है।


इसके बावजूद शर्मा को आशा थी कि पार्टी उनकी प्रतिभा को पहचानेगी और पारिवारिक दावों से परे उन्हें पदोन्नत करेगी। गोगोई कोई छोटे नेता नहीं थे। उन्होंने 2011 में कांग्रेस को लगातार तीसरी बार असम की सत्ता दिलाई थी और विधानसभा की 126 में से 78 सीटों पर जीत हासिल करके  मुख्यमंत्री बने थे। परंतु शर्मा को लगता था कि इसका कुछ श्रेय उन्हें भी मिलना चाहिए था। जुलाई 2014 में गोगोई ने शर्मा पर नाम लेकर हमला किया। उन्होंने कहा, 'मैं उन पर बहुत भरोसा करता था। अब वह मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, इससे कम उन्हें कुछ स्वीकार नहीं। अब मेरे और उनके रिश्ते अच्छे नहीं हैं।' गोगोई ने यह बात एक आम सभा में कही थी। इसके प्रतिरोध स्वरूप शर्मा ने असंतुष्टों को जुटाया और कांग्रेस विधायक दल की एक बैठक आयोजित की। बैठक से यह साबित हो गया कि विधायक दल में उन्हें मुख्यमंत्री से अधिक विधायकों का समर्थन हासिल है। उन्होंने दावा किया कि उन्हें पार्टी के 78 विधायकों में से 52 का समर्थन हासिल है और वह कांग्रेस विधायक दल के नेता बनना चाहते हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस बात को ठुकरा दिया। असंतुष्ट विधायक भी शर्मा के साथ नहीं रहे। ऐसी अफवाह है कि गोगोई रो पड़े थे।


शर्मा को अहसास हुआ कि वे यहां तरक्की नहीं कर सकते और उन्होंने भाजपा को संदेश भेजा और अगस्त 2015 में वह भाजपा में शामिल हो गए। यह इससे पहले भी हो सकता था लेकिन भाजपा के पास असम में दो ही बड़े नेता थे:  कामाख्या ताशा और सर्वानंद सोनोवाल। शर्मा के भाजपा में शामिल होने के कुछ ही दिन पहले केंद्रीय मंत्री किरन रिजिजू और सोनोवाल ने संवाददाता सम्मेलन आयोजित करके लुई बर्गर रिश्वत कांड में शर्मा की भूमिका को रेखांकित किया। सोनोवाल ने स्पष्ट किया कि वह शर्मा को भ्रष्ट राजनेता मानते हैं। ये आरोप शर्मा के 2006 से 2011 के बीच गुवाहाटी विकास विभाग के मंत्री के कार्यकाल को लेकर थे। अमेरिकी कंपनी लुई बर्गर पर अमेरिकी अदालतों में अभियोग लगा कि उसने शहरों में पेय जल आपूर्ति के ठेके हासिल करने के लिए भारतीय राजनेताओं को रिश्वत दी। परंतु गुवाहाटी में इस अनुबंध से संबंधित फाइलें 'गुम' हो गईं। प्रवर्तन निदेशालय के पूर्वी क्षेत्र कार्यालय ने धनशोधन निरोधक अधिनियम के तहत 'अज्ञात लोगों' के खिलाफ शिकायत दर्ज की। गोवा में लोक निर्माण मंत्री चर्चिल अलेमाओ को गिरफ्तार किया गया लेकिन गुवाहाटी में इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं की गई। और शायद अब कभी होगी भी नहीं।


जब सोनोवाल मुख्यमंत्री बने तो जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि शर्मा ही सुपर सीएम हैं। तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह पूर्वोत्तर से जुड़े हर मुद्दे पर सलाह मशविरे के लिए उनकी ओर ही रुख करते थे। किरन रिजिजू की अहमियत भी पहले जैसी नहीं रह गई थी। शर्मा को वित्त मंत्री बनाया गया और उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने न केवल सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित की बल्कि सबसे अहम बात यह कि उन्होंने सूक्ष्म वित्त क्षेत्र को विनियमित किया। ध्यान रहे असम में कर्ज न चुका पाने के कारण बड़ी तादाद में लोग आत्महत्या करते हैं। कई लोग मानते हैं कि सूक्ष्म वित्त पर असम का कानून आरबीआई के नियमों का उल्लंघन करता है। परंतु यह राजनीतिक हस्तक्षेप कारगर रहा इसलिए किसी ने शिकायत भी नहीं की।


असम और वहां के नए मुख्यमंत्री के लिए आगे की राह चुनौतियों से भरी हुई है। राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) का क्या होगा? क्या दशकों से असम में रह रहे लाखों लोगों को केवल इसलिए पृथक करना होगा क्योंकि उनके पास यह साबित करने के कागज नहीं हैं और क्या यह बोझ शर्मा के कंधों पर आएगा? इन लोगों का क्या होगा? क्या उन्हें शिविरों में रखा जाएगा? क्या उन्हें वहां वापस भेजा जाएगा जहां कहीं से भी वे आए हैं?


असम में धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा। सन 2021 के चुनावों का सबसे अहम राजनीतिक निहितार्थ यह नहीं है कि भाजपा सत्ता में लौट आई या कांग्रेस ने काफी कुछ गंवा दिया। असल निहितार्थ यह है कि लोकसभा सांसद बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व वाले ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) को 16 सीटों पर जीत मिली जो 2016 के चुनाव से तीन अधिक हैं। एआईयूडीएफ ने 126 में से केवल 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था। यानी उसने 80 फीसदी से अधिक सफलता हासिल की। यह तथ्य भविष्य में असरदार साबित होगा। हिमंत विश्व शर्मा को काफी काम करना होगा।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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