कोविड के तूफान में लडख़ड़ाता मुल्क (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता 

क्या भारत एक नाकाम देश है? समाचार पत्रिका इंडिया टुडे को ऐसा ही लगता है।  परंतु मैं इससे विनम्र असहमति रखता हूं। भारत अब तक नाकाम देश नहीं है। यदि ऐसा होता तो पत्रिका अपने कवर पर ऐसा शीर्षक न लगा पाती और मैं यह आलेख न लिख पाता। यदि ऐसा होता तो हम नहीं जान पाते कि हम किस कदर नाकाम हो रहे थे। जब तक देश का मीडिया, नागरिक समाज और आम नागरिक सब तक बुरी खबर पहुंचाने में सक्षम हों, बीते चार दशक के सबसे ताकतवर शासक को आईना दिखा सकते हों, तब तक हम नाकाम देश नहीं माने जा सकते।

तो हम क्या हैं? शायद मैं अधिक उचित ढंग से परिभाषित कर सकूं। हम एक ऐसा देश हैं जो दर्द में है, हताश और भ्रमित है, जहां अफरातफरी है, जो नेतृत्वविहीन है और त्रासदी के किनारे खड़ा है लेकिन हम राह तलाश रहे हैं। हम फ्लेलिंग यानी डांवाडोल स्थिति में हैं। यह जुमला अर्थशास्त्री लांट प्रीचेट का दिया हुआ है जो फिलहाल ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में ब्लावत्निक स्कूल ऑफ गवर्नमेंट में शोध निदेशक हैं। उन्होंने 2009 में हॉवर्ड के केनेडी स्कूल में पढ़े अपने बहुचर्चित पर्चे में कहा था 'भारत एक डांवाडोल देश: आधुनिकीकरण के चक्करदार चार लेन राजमार्ग पर।'


ध्यान रहे उन्होंने यह बात 2009 के भारत के बारे में कही थी जब देश में संप्रग सरकार थी और वृद्घि दर उछाल पर थी। परंतु उस वक्त भी सरकार शासन में सुधार करने अधिकांश लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने और वृद्घि का लाभ व्यापक समृद्घि और सामाजिक सुरक्षा के रूप में दिलाने में नाकाम रही थी। सन 2009 और 2014 के बीच संप्रग-2 में भ्रम की स्थिति थी और इस दौरान शासन का स्तर तेजी से गिरा। सरकार अनिर्णय और विरोधाभास की शिकार थी। सरकार अनिर्णय और विरोधाभास के कारण पंगु हो चली थी। जब देश कुछ ज्यादा ही लडख़ड़ाने लगा तो नरेंद्र मोदी ने अवसर का लाभ उठाया और इसे बदलने का वादा किया। उन्होंने न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन का वादा किया और लोगों ने उन पर यकीन किया। अनिश्चितता के माहौल में उन्होंने एक नए भारत का वादा किया। हालांकि सात वर्ष के आर्थिक गतिरोध के दौरान उनके मतदाताओं ने उन पर भरोसा कायम रखा। लेकिन इस वायरस ने हकीकत उघाड़ कर रख दी। मोदी के कार्यकाल के सात वर्ष बीतने के बाद भारत अप्रत्याशित रूप से निष्क्रिय है और बुरी तरह लडख़ड़ाया हुआ है।


राज्यसत्ता, शीर्ष नेतृत्व, अफसरशाही समेत उसके संस्थान और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान सभी या तो नदारद हैं या लीपापोती में लगे हैं। वे हकीकत को बदलने में नहीं बल्कि किसी तरह छवि चमकाने में लगे हैं।


हर नेता की अपनी ब्रांड छवि होती है। मोदी की छवि में हिंदुत्व और कट्टर राष्ट्रवाद के अलावा प्रशासनिक क्षमता तथा कल्याण योजनाओं का सक्षम और किफायती क्रियान्वयन भी शामिल है। हमने बीते सात सालों में इनमें से कुछ देखने को मिले, खासतौर पर सर्वाधिक गरीब लोगों को कल्याण योजनाओं का लाभ और अधोसंरचना विकास। परंतु बुनियादी शासन में मजबूती नहीं आई। संस्थान तो कमजोर हुए ही, केंद्रीय मंत्रिमंडल भी कमजोर हुआ। अगर यह किसी सामान्य मंत्रिमंडल की तरह काम करता तो इसके सबसे प्रभावी मंत्रियों को संकट से निपटने के काम में लगाया गया होता। जो नाकाम होते उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। ऐसे गंभीर राष्ट्रीय संकट के वक्त राजनीति को जीवन और मौत पर तरजीह नहीं दी जाती। मुझे पता है कि जवाहरलाल नेहरू का जिक्र कई लोगों को उकसा सकता है। परंतु सन 1962 की लड़ाई में पराजय के बाद उन्होंने अपने रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन को हटाकर वाई बी चव्हाण को रक्षा मंत्री बना दिया। चव्हाण ने जल्दी ही भारतीय सेना के आधुनिकीकरण की पहली पंचवर्षीय योजना शुरू की। सन 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में इसका असर भी नजर आ गया। लाल बहादुर शास्त्री को विरासत में एक भीषण खाद्यान्न संकट मिला। उन्होंने इससे सीधा मुकाबला किया और सी सुब्रमण्यम को कृषि मंत्री बनाया। इंदिरा गांधी ने भी उन्हें इस पद पर बरकरार रखा और सन 1969 में हमें हरित क्रांति मिली।


अगर हमें गांधी परिवार से दिक्कत है तो हमें सन 1991 के आर्थिक संकट को याद करना चाहिए जब हम डिफॉल्ट के करीब पहुंच गए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया जो राजनीतिज्ञ नहीं थे। सन 2008 में 26/11 के आतंकी हमले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने गृह मंत्री शिवराज पाटिल को हटा दिया और पी चिदंबरम को नया गृह मंत्री बनाया। एआईए और एनटीआरओ जैसे संस्थान जिन्हें मोदी सरकार कई वजहों से इतनी तवज्जो देती है उनका श्रेय भी सिंह को जाता है।


कहने का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें अपने मंत्रियों में फेरबदल करनी चाहिए। व्यक्ति नहीं बल्कि मुद्दे महत्त्वपूर्ण होते हैं। आइए उन अहम मुद्दों की सूची बनाएं जिनके चलते कड़े निर्णय लिए जा सके:

  • सबसे पहले यह स्वीकार किया गया कि गलती हुई है। जब तक नाकामी स्वीकार नहीं की जाएगी समस्या हल नहीं की जा सकती।
  • शीर्ष नेता या नेतृत्व को सुरक्षित रखने का कोई दबाव नहीं था।
  • एक नेता को पूरा श्रेय देने की होड़ नहीं थी क्योंकि इसके लिए निरंतर जीत की घोषणा करनी होती है।

इन सभी अवसरों पर चापलूसी की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। उस वक्त ट्विटर नहीं था लेकिन इंदिरा गांधी के कार्यकाल में चापलूसी के कुछ जबरदस्त दौर देखने को मिला। चूंकि हमने इस आलेख की शुरुआत इंडिया टुडे की आवरण कथा की सुर्खी से की थी तो सन 1982 का ऐसा ही एक शीर्षक याद आता है जिसमें कहा गया था: 'असीमित चाटुकारिता'। परंतु तब ऐसे मंत्री नहीं होते थे जो हर रोज विदेशी सहायता लेकर आने वाले विदेशी विमानों के लिए प्रधानमंत्री की सराहना किया करते हों और इसे ही अपना काम समझते हों। खासकर तब जबकि विदेशी सहायता लेने की नौबत इसलिए आई क्योंकि आप अपना काम करने में नाकाम रहे।

वे जिस तरह बेदाग निकल रहे हैं और प्रधानमंत्री जिस तरह पीछे हटे हैं उससे त्रासदी में इजाफा ही हुआ है। यह सरकार हकीकत से मुंह मोड़ रही है। बचाव ऐसी बातें की जा रही हैं कि हमारे यहां अभी भी ब्रिटेन से कम मौतें हुई हैं, या वायरस का नया स्वरूप अधिक खतरनाक है। यह भी कि हमारे प्रधानमंत्री के एक आह्वान पर विदेशों से ऑक्सीजन आ रही है। ताजा बचाव यह है कि लहर थम रही है और संकट जल्दी समाप्त हो जााएगा।


संस्थाओं की सच बोलने में अक्षमता और सामूहिक इनकार ने ही हमें अकल्पनीय संकट के हवाले कर दिया है। इससे देश के वैश्विक कद को नुकसान पहुंचा है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक हर सप्ताह दसियो हजार भारतीय मर रहे हैं और आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। पैथॉलजी लैब से लेकर अस्पताल और श्मशान तक सारी व्यवस्था ध्वस्त है। यह वक्त विन्रमता दिखाने का है तभी लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी व्यापक राष्ट्रीय एकजुटता कायम हो सकेगी। डॉमिनिक लापियर और लैरी कॉलिंस ने अपनी पुस्तक 'फ्रीडम ऐट मिडनाइट' में एक उल्लेखनीय घटना का जिक्र किया है। जब विभाजन के दंगे नियंत्रण से बाहर हो गए और पंजाब की आग दिल्ली आ गई तो नेहरू ने वायसराय माउंटबेटन से मुलाकात कर मदद मांगी। नेहरू और सरदार पटेल ने माउंटबेटन से कहा कि उन्होंने वर्षों तक आंदोलन किया है और जेल में वक्त बिताया है लेकिन उन्हें शासन का अनुभव नहीं है। उन्होंने माउंटबेटन से आग्रह किया कि वे एक आपात परिषद बनाएं और उसकी अध्यक्षता करें। नये आजाद हुए देश की कमान वायसराय के हाथ। कांग्रेस में इसका विरोध हुआ और किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठी। परंतु लेखकों का कहना था कि यह तो एक नेता दरियादिली की निशानी थी। हमारा यह कहना नहीं है कि मोदी ऐसा कुछ करें। लेकिन उन्हें अपनी पार्टी तथा उसके बाहर की प्रतिभाओं से संपर्क करना चाहिए, विपक्ष को विश्वास में लेकर केंद्र और राज्यों का एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। इसके लिए पहले संकट को स्वीकार करना होगा। इसके लिए विनम्रता चाहिए जो अब तक नहीं दिखी है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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