सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को तरल चिकित्सकीय ऑक्सीजन का 'प्रभावी और पारदर्शी' वितरण सुनिश्चित करने के लिए जो 12 सदस्यीय 'राष्ट्रीय कार्य बल' बनाने का निर्णय लिया है उसका उद्देश्य तो अच्छा है लेकिन यह प्रयास सुविचारित नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र सरकार राज्यों को ऑक्सीजन की समुचित आपूर्ति का स्थायी निदान नहीं कर सकी और इसके कारण कोविड-19 के अनेक मरीजों को केवल ऑक्सीजन की कमी के कारण जान गंवानी पड़ी। परंतु अपने मार्गदर्शन में कार्यबल का संयोजन करना न्यायालय की अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा का उदाहरण है और यह शायद ही अधिक प्रभावी कदम साबित हो। यह बात तो पहले ही स्पष्ट हो गई जब सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल के अंत में देश में महामारी के प्रबंधन की समीक्षा करते हुए स्वप्रेरणा से मामला दर्ज किया था तब से तीन सदस्यीय पीठ ने कई पर्यवेक्षण जारी किए हैं। लेकिन उनमें से कोई भी अस्पताल में बिस्तर, जांच किट, औषधि, टीकाकरण आदि की कमी की समस्या को व्यापक तौर पर बदल पाने में नाकाम रहा। देश के लोग महामारी से वैसे ही जूझ रहे हैं। कुछ राज्यों में सुधार को हटा दें तो अभी भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के चलते सरकार का हरकत में आना नहीं दिखा है।
सर्वोच्च न्यायालय की इस कवायद से कई प्रश्न पैदा हुए हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि आईसीयू और गैर आईसीयू बेड की गणना के आधार पर ऑक्सीजन आवंटन के फॉर्मूले से खुश नहीं है क्योंकि उसमें इस तथ्य की अनदेखी की जाती है कि कोविड-19 के कई मरीज ऐसे हैं जिन्हें अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिल रहे या वे घर पर इलाज करा रहे हैं। यह आपत्ति उचित है। परंतु अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अधिकांश उद्यमियों और चिकित्सकों वाला यह कार्य बल कैसे मददगार साबित होगा। इसमें देश के शहरी इलाकों में कुछ सबसे बड़े निजी स्वास्थ्य सेवा शृंखला चलाने वाले और अकादमिक जगत के लोग शामिल हैं। ये सभी अपने-अपने क्षेत्र में अव्वल हो सकते हैं लेकिन एक बड़ा अस्पताल चलाना और महामारी विज्ञान का विशेषज्ञ होना अलग बात है और देश के शहरों और गांवों में ऑक्सीजन आपूर्ति की लॉजिस्टिक बाधाओं की समझ होना एकदम अलग मामला है। क्योंकि इस मामले में विनिर्माण क्षेत्र और विविध परिवहन नेटवर्क के बीच तालमेल कायम करना होता है। इन विशेषज्ञों की सीमाओं का अहसास होने पर अफसरशाही को भी इसमें प्रतिनिधित्व दिया गया। सचिव, स्वास्थ्य मंत्रालय को इसमें शामिल किया गया और कैबिनेट सचिव राष्ट्रीय कार्यबल के संयोजक होंगे।
अगर मान लिया जाए कि इस कार्य बल से कुछ अच्छे और अभिनव विचार सामने आएंगे तो भी यह सुनिश्चित नहीं है कि सरकार उन्हें लागू करेगी या नहीं अथवा सर्वोच्च न्यायालय इन्हें कैसे क्रियान्वित करेगा। केंद्र सरकार पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेपों और आदेशों को लेकर अनिच्छा का संकेत दे चुकी है। रविवार को उसने टीकों की अलग-अलग कीमत की नीति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा को ध्यान में रखते हुए एक हलफनामा दाखिल किया और कहा कि इसके अनदेखे और अनचाहे परिणाम हो सकते हैं। चाहे जो भी हो लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप पहले भी अच्छा नहीं साबित हुआ है। दूरसंचार लाइसेंस और लौह अयस्क खनन लाइसेंस रद्द करने की घटनाओं ने देश के दो उभरते क्षेत्रों को काफी क्षति पहुंचाई। ऐसी कोई वजह नहीं है कि सरकार महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्यों के अनुभवों का लाभ न उठाए। इन राज्यों ने महामारी के प्रबंधन में अच्छा काम किया है। अपनी सलाहकार क्षमता में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से शायद यही सलाह सबसे उचित होती।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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