देश के दो महानगरों की अलहदा दास्तां (बिजनेस स्टैंडर्ड)

ओमकार गोस्वामी  

मुंबई का नगर निकाय बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) करीब 1.29 करोड़ जनसंख्या के लिए सुविधाएं जुटाने का काम करता है। वहीं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की आबादी करीब 1.77 करोड़ है। इस लेख में यह परखने की कोशिश की जाएगी कि इन दोनों महानगरों ने 9 फरवरी से लेकर 9 मई तक कोरोनावायरस की दूसरी लहर का सामना किस तरह किया है? 


कोविड की दूसरी लहर के दोनों महानगरों में विस्फोटक रूप अख्तियार करने के बावजूद मुंबई में संक्रमण के दर्ज मामलों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम रही है। गत 4 अप्रैल को मुंबई में सबसे ज्यादा 11,206 नए संक्रमित सामने आए थे। इसकी तुलना में दिल्ली में संक्रमितों एवं नए मामलों की संख्या कहींं ज्यादा रही। गत 20 अप्रैल को दिल्ली में 28,395 नए मामले सामने आए थे और 30 अप्रैल को 27,047 मामले दर्ज किए गए। उसके बाद से दिल्ली में कोरोना संक्रमण की दर में गिरावट देखी जा रही है। 


उसी तरह मुंबई में कोविड से होने वाली पुष्ट मौतों की संख्या 1 मई को 90 थी। वहीं दिल्ली में 3 मई को सबसे ज्यादा 448 मौतें दर्ज की गई थीं। सवाल है कि मुंबई किस तरह कोविड से होने वाली मौतों पर काबू पाने में किस तरह सफल रहा है जबकि दिल्ली ऐसा नहीं कर पाया? और वायरस की तीसरी लहर से निपटने के लिए की जाने वाली तैयारी के लिहाज से इसके क्या मायने हैं? दूसरी लहर के बाद तीसरी लहर का आना कुछ उसी तरह तय है जैसे रात के बाद दिन का आना।


मुंबई एवं दिल्ली दोनों जगह रह चुके लोग दोनों शहरों के बीच एक बुनियादी फर्क की बात खुलकर स्वीकार करते हैं। उनके मुताबिक, दिल्ली की तुलना में मुंबई के निवासी किसी भी काम में कहीं अधिक पेशेवर एवं अनुशासित होते हैं। मेरा इशारा सिर्फ कॉर्पोरेट चरित्र की ओर ही नहीं है। मुंबई के घरों में साफ-सफाई के लिए रोजाना आने वाली सहायिका को ही लीजिए। वे निर्धारित समय पर आती हैं, चाहे आप घर पर हों या न हों, सारे घरेलू काम पूरा करती हैं और फिर अगले घर की तरफ चल देती हैं। एक सहायिका हर रोज पांच से सात घरों में साफ-सफाई का काम करती है और हर जगह वह अपना काम सही ढंग से करती है। 


या फिर यातायात पुलिस का उदाहरण लीजिए। दिल्ली में वे दोपहिया वाहनों को यातायात सिग्नल से आगे निकलने या हेलमेट न पहनने के लिए कभी-कभार पकडऩे के सिवाय कुछ नहीं करते हैं। लेकिन आप मुंबई जाएं तो देखेंगे कि यातायात पुलिस दक्षिणी इलाके नरीमन प्वाइंट से उत्तर के बोरीवली एवं मुलुंड की ओर जाने वाले यातायात को नियंत्रित करने के लिए एक-दूसरे के लगातार संपर्क में रहते हैं। 


अपने तमाम ढांचागत कमजोरियों को दूर करने के लिए मुंबई लगातार प्रयत्नशील रहती है। और इसका कारण यह है कि मुंबईकर काम करने में यकीन करते हैं। 


पेशेवर कार्य संस्कृति होना दिल्ली के लिए एकदम उलटा है। मुंबई में लोग किसी बस पर चढ़ते समय लाइन नहीं तोड़ते हैं। वहीं दिल्ली में हर कोई एक-दूसरे के सिर पर चढ़कर आगे  पहुंच जाना चाहता है। दिल्ली का मतलब है आगे बढऩे के लिए अपने संपर्कों का इस्तेमाल करना, बातचीत के दौरान महत्त्वपूर्ण लोगों के नाम ले लेना, अपने निजी लाभ के लिए चीजों को फिक्स करना और पहले से दी गई तारीख पर अपना काम पूरा न करना। दिल्ली का मतलब नियम न मानना और निजी जुगाड़ से है।


मुंबई ने आखिर क्या किया? मुझे कुछ जानकारियां साझा करने की इजाजत दें। 'मनीलाइफ' में 7 मई को प्रकाशित सुचेता दलाल के बेहतरीन लेख और बीएमसी के आयुक्त  इकबाल सिंह चहल का 'द इंडियन एक्सप्रेस' में 10 मई को  प्रकाशित साक्षात्कार इन जानकारियों के आधार हैं।


चहल को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का भरपूर समर्थन हासिल था। उन्हें अपनी ऊर्जा यह सोचने में नहीं  खपानी थी कि उनके बॉस की क्या राय है? इसके बजाय चहल ने अपना ध्यान लोगों के बीच फैली अफरातफरी कम करने, प्रतिक्रिया देने में लगने वाला वक्त कम करने के लिए वॉर रूम को कई हिस्सों में बांटने और ढांचा खड़ा करने पर दिया। 


संदिग्ध संक्रमितों की जांच के नतीजे उसी दिन शाम को मरीजों को बता दिए जाते थे। इससे लोगों के बीच काफी अफरातफरी पैदा होती थी क्योंकि कोविड संक्रमित पाए गए मरीज अस्पतालों में बिस्तर पाने को बेचैन हो जाते थे। ऐसी स्थिति में चहल ने कुछ ऐसा किया जो थोड़ा विवादास्पद था। उन्होंने हरेक जांच लैब को कहा कि वे सीधे मरीज को जांच के नतीजे न बताकर बीएमसी को भेजें। चहल ने इसके पहले मुंबई के सभी 24 वार्डों के लिए अलग-अलग वॉर रूम बना दिए थे। हरेक वॉर रूम में 30 टेलीफोन लाइन, 10 टेलीफोन ऑपरेटर, 10 डॉक्टर, मेडिकल सपोर्ट स्टाफ एवं 10 ऐंबुलेंस तैनात की गईं। ये वॉर रूम हफ्ते के सातों दिन 24 घंटे काम करते रहे। इनमें से हरेक जगह 10 डैशबोर्ड भी लगे हुए थे जो एक वार्ड के भीतर उपलब्ध अस्पताल बिस्तरों के बारे में नवीनतम जानकारी देते थे। इस तरह पूरी मुंबई में अस्पतालों के बिस्तर के बारे में 240 डैशबोर्ड बताते थे। 


सुबह के छह बजते ही संक्रमित नतीजों की जानकारी बीएमसी से वार्डों को भेजे जाते थे। आठ बजे तक हरेक वार्ड ये नतीजे मरीजों को बताने लगते थे और डॉक्टर एवं मेडिकल कर्मचारी भी उनके घरों के लिए निकल पड़ते थे। बीएमसी ने इसके लिए 900 डॉक्टर एवं 600 नर्सिंग छात्रों को भी काम पर रखा। निगम ने करीब 800 एसयूवी गाडिय़ों को ऐंबुलेंस में तब्दील किया। बीएमसी ने 172 अस्पतालों एवं कोविड सुविधा केंद्रों के बारे में जानकारी के लिए एक केंद्रीकृत डैशबोर्ड बनाया। जब किसी को अस्पताल में भर्ती कराना जरूरी होता था तो वार्ड के डॉक्टर अस्पतालों के डैशबोर्ड से उपलब्ध बिस्तरों के बारे में जानकारी जुटाते थे और फिर मरीज को उस अस्पताल में भेज दिया जाता था। वहीं हल्के लक्षणों वाले संक्रमितों को उनके घरों में ही पृथकवास में रहने को कहा गया। 


बीएमसी के आयुक्त चहल ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी-बंबई) के साथ मिलकर शहर के 47 शवदाह गृहों का भी एक डैशबोर्ड तैयार कराया। इससे अंतिम संस्कार के लिए लोगों को देर तक इंतजार करने से राहत मिली और शवदाह गृहों पर भीड़ लगनी भी बंद हो गई। 


चहल दूसरी लहर की धार कुंद करने के बाद अब तीसरी लहर से निपटने की तैयारी में जुट गए हैं। उन्होंने शहर में ऑक्सीजन सुविधा से युक्त अस्पताल बिस्तरों को समुचित मात्रा में तैयार कराया है। वास्तव में, उन्होंने शहर में छह जगहों पर ऑक्सीजन के आपात भंडारण का भी इंतजाम किया है। इसके साथ ही अतिरिक्त ऑक्सीजन संयंत्र लगाने की भी जोर-शोर से तैयारी हो रही है। 


साफ है कि यह एक पेशेवर मिजाज वाले शहर में तैयारी, प्रबंधन एवं क्रियान्वयन का उदाहरण है। इसकी तुलना में दिल्ली ने कुछ भी उल्लेेखनीय नहीं किया है। न तो उसने अस्पतालों में अधिक बिस्तर लगवाए, न ऑक्सीजन का भंडारण किया और न ही आपाधापी रोकने के लिए एक कंप्यूटरीकृत ढांचा ही खड़ा किया है। इसके बजाय दिल्ली के मुख्यमंत्री हर रोज ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करते रहे। कभी गाड़ी के नीचे लेटकर विरोध करने वाले शख्स से क्या हमें कुछ अधिक की उम्मीद करनी चाहिए?


(लेखक सीईआरजी एडवाइजरी प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन हैं) 

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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