देश की राजधानी के बीचोबीच निर्मित हो रही सेंट्रल विस्टा परियोजना की चौतरफा आलोचना हुई है। यह परियोजना गलत क्यों है इस बारे में बात करने से पहले बदलाव के बारे में कुछ कहना जरूरी है। पहली बात, मोदी सरकार यह कहने वाली पहली सरकार नहीं है कि संसद भवन असुरक्षित है। ऐसा भी नहीं है कि वर्तमान में यह इलाका कोई अच्छी तस्वीर पेश करता है। यह पूरी जगह आगंतुकों की दृष्टि से कतई अच्छी नहीं है, हरे-भरे इलाके में कारों ने अतिक्रमण कर रखा है और प्रमुख इलाकों में जमीन का इस्तेमाल भी सही ढंग से नहीं किया गया है। विभिन्न भवन संचालित हैं लेकिन उनका रखरखाव काफी खराब है। दरवाजों और खिड़कियों की उम्र नजर आने लगी है और शौचालयों से बदबू आती है। केंद्रीकृत वातानुकूलक का अभाव है जो आज के समय में अनिवार्य है। सुरक्षा व्यवस्था भी मजबूत नहीं है। इस पूरी जगह को आंतरिक और बाहरी बदलाव तथा बेहतर रखरखाव की जरूरत है।
ऐसे में एक परियोजना जो जमीन का बेहतर इस्तेमाल करे, इमारतों के बीच बेहतर संबद्धता कायम करे, जहां भूमिगत पार्किंग और केंद्रीकृत वातानुकूलक हो, वह अपने आप में उत्कृष्ट होगी। परंतु क्या इतनी बात सेंट्रल विस्टा परियोजना के मौजूदा स्वरूप को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त है? नहीं। मिसाल के तौर पर परियोजना में इतिहास को लेकर सम्मान का भाव नहीं दिखता भले ही वह हमारे औपनिवेशिक इतिहास का हिस्सा है। दूसरा, इमारतों में सुधार कार्य या नई इमारतें बनाने का काम सुसंगत होना जरूरी है। यदि इरादा खुली कार्यालयीन व्यवस्था बनाने और काम में कम गतिरोध (जैसा कि नरेंद्र मोदी कह चुके हैं) पैदा करने का है तो क्या सरकार केवल दो स्तरीय निर्णय वाली डेस्क-अधिकारी प्रणाली अपनाना चाहती है? याद रहे पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने आधी सदी पहले इसका सुझाव दिया था लेकिन कोई समीक्षा नहीं की गई।
तीसरी बात, पुरानी और अपनी पहचान कायम कर चुकी इमारतों का दूसरा इस्तेमाल हो सकता है, उन्हें भीतर से दोबारा बनाया जा सकता है ताकि बिना बाहरी बदलाव के उन्हें ढांचागत मजबूती प्रदान की जा सके। व्हाइट हाउस, बंडस्टैग और कई अन्य पुरानी इमारतों के साथ ऐसा किया जा चुका है। यदि लोकसभा का कक्ष इतना छोटा है कि उसमें अन्य सदस्य नहीं आ सकते तो केंद्रीय कक्ष को निचले सदन में बदला जा सकता है। चौथा, दूसरे विश्व युद्ध के काल के कुछ अस्थायी बैरकों की जगह पार्किंग टावर बनाए जा सकते हैं ताकि पार्किंग की मौजूदा दिक्कत दूर की जा सके।
पांचवीं बात,सभी सरकारी कार्यालयों को एक पास रखने की चाहत में कोई विशेष अच्छी बात नहीं है। बल्कि यह सुरक्षा की दृष्टि से जोखिम भरा हो सकता है। यकीनन कार्यालयों को एक पास रखने के दावे के विपरीत नया सैन्य मुख्यालय काफी दूर कैंट इलाके में होगा। जबकि वायुसेना का मुख्यालय पुरानी जगह पर रहेगा। हालांकि रक्षा सेवाएं अपनी योजना और परिचालन को एकीकृत कर रही हैं। इमारतों के डिजाइन का एकरूप होना भी कोई अच्छी बात नहीं। जरा वॉशिंगटन मॉल की वास्तु विविधता पर गौर कीजिए। छठी बात, राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय अभिलेखागार की लाखों बेशकीमती और नाजुक कलाकृतियों को नॉर्थ और साउथ ब्लॉक (शायद वे बतौर संग्रहालय उपयुक्त न हों) ले जाने से पहले कैसे संभाला जाएगा। खासकर तब जबकि वे इमारतें असुरक्षित हैं?
अंत में, नई सरकारी इमारतें अक्सर पुरानी इमारतों की तुलना में कमतर रहती हैं। वे या तो आंखों में चुभती हैं (मौजूदा सेना मुख्यालय यानी सेना भवन और लोक नायक भवन) या उनमें अनावश्यक विस्तार होता है मसलन साउथ ब्लॉक के पीछे रक्षा अनुसंधान भवन, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नई इमारत और विदेश मंत्रालय का नया भवन जिसे मानो यह मानकर तैयार किया गया है जैसे यह प्रमुख जमीन असीम है और उसका कोई मूल्य ही नहीं है। इनमें से कुछ इमारतों में लगने वाले कार्यालय एक बैडमिंटन कोर्ट से बड़े हैं। ऐसे में इतिहास का दोहराव कैसे रोका जाएगा?
संक्षेप में कहें तो इतनी महत्त्वपूर्ण और विशालकाय परियोजना को गोपनीय तरीके से क्यों तैयार करना पड़ा और इसे आम जनता की नजर से दूर चुनिंदा लोगों से ही क्यों साझा किया गया? इस दौरान सस्ते और बेहतर विकल्पों पर भी विचार नहीं किया गया और इसे एक महामारी के बीचोबीच अंजाम दिया जा रहा है जब एक-एक रुपया देश की चिकित्सा क्षमता सुधारने में व्यय किया जाना चाहिए।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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