टीसीए श्रीनिवास-राघवन
मोदी सरकार को इस समय आलोचकों के साथ-साथ समर्थकों की भी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। कोविड महामारी से निपटने में सरकार का इस कदर नाकाम होना इस नाराजगी की वजह है। विंस्टन चर्चिल को थोड़ा गलत ढंग से उद्धृत करें तो बहुत कम लोगों को इतने सारे लोगों ने कभी भी बददुआ नहीं दी होगी।
लेकिन सरकार की गलतियां मानने एवं नकारने का काम किए बगैर भी इतिहास पर फौरी नजर डालने से पता चलता है कि सरकार एवं अफसरशाही की बेवकूफी, खुफिया नाकामी एवं सहज अभिमान के मेल ने हमेशा ही भयावह त्रासदियों को जन्म दिया है। ये स्थितियां या तो अकेले या फिर एक साथ भी पैदा हो सकती हैं। लेकिन जब तीनों हालात एक साथ बनते हैं तो फिर आज ही की तरह पूर्ण विनाश की स्थिति बाकी रह जाती है।
वैसी स्थिति में सिर्फ किस्मत ही आपको बचा सकती है। लेकिन प्यार की तरह किस्मत का भी साथ मिलना दुर्लभ हो सकता है। यह लेख पढ़ते समय आपको थोड़ा लुत्फ देने के लिए मुझे भारत और विदेश में सरकारों के स्तर पर की गई कुछ बड़ी गलतियों का उल्लेख करने दीजिए। हम अपना ध्यान 1800 से पहले की घटनाओं तक नहीं ले जाएंगे क्योंकि जगह इसकी इजाजत नहीं देता है। अपवादस्वरूप, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति का जिक्र करना चाहूंगा जिसमें फ्रांस के नरेश हालात समझने में पूरी तरह नाकाम रहे थे और आखिर में उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। रूस के सम्राट जार निकोलस द्वितीय के साथ भी यही हुआ। इसमें से हर बार बेवकूफी, घमंड एवं खुफिया नाकामी की तिहरी मार रही।
पश्चिम की नजीर
अगली बार भी यह फ्रांस में ही हुआ। अपनी पिछली जीतों के घमंड में चूर नेपोलियन ने सारी चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए रूस पर हमला करने का फैसला किया। हर कोई जानता है कि इसका अंत किस तरह हुआ था, वह एक पूर्ण एवं नृशंस पराजय थी। उसके बाद फ्रांस लंबे वक्त के लिए अनियंत्रित गिरावट की स्थिति में रहा। सच तो यह है कि वह सही मायनों में आज भी पूरी तरह उबर नहीं पाया है। वर्ष 1914 में उस समय की बड़ी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति ब्रिटेन ने सोचा था कि जर्मनी के खिलाफ जंग चार महीनों में ही निपट जाएगी और वह अपने घर लौटकर क्रिसमस का त्योहार मनाएगा। लेकिन असल में वह जंग चार साल तक चली और ब्रिटेन हर तरह से हमेशा के लिए कमजोर हो गया। आपको लगेगा कि इन घटनाओं से सत्ता-प्रतिष्ठानों ने कुछ सबक जरूर सीखे होंगे लेकिन बदकिस्मती से ऐसा नहीं है। वर्ष 1940 में फ्रांस एवं ब्रिटेन दोनों ने फिर से अनुमान लगाने में गलती की जिसका नतीजा फ्रांस पर जर्मनी के हमले और डनकिर्क की शिकस्त के तौर पर सामने आया। डनकिर्क में ब्रिटेन के करीब तीन लाख सैनिक फंस गए थे और यह उनकी खुशकिस्मती ही थी कि वे बच गए। फिर दिसंबर 1941 में यही बात अमेरिका के साथ हुई। उसने सोचा था कि उस पर कभी हमला ही नहीं हो सकता है। उसे लगता था कि वह बाकी दुनिया से इतना दूर है कि कोई उस पर हमला कर ही नहीं सकता। लेकिन उसके पर्ल हार्बर ठिकाने पर जापानी विमानों की बमबारी ने अमेरिका की इस सोच को गलत साबित कर दिया और उसकी सारी हेकड़ी निकल गई। यह विडंबना ही है कि खुद जापान ने भी वही गलती दोहराई।
नकल का खेल
अभिमानी नेता दूसरे घमंडी नेताओं की नकल करते हैं और जून 1942 में हिटलर ने भी रूस पर हमला बोल दिया। यह कुछ ऐसा था मानो हिटलर को किसी ने नेपोलियन के दुस्साहिक अभियानों के बारे में बताया ही न हो। उसका भी अंत बहुत बुरा हुआ था। हिटलर के जर्मनी को पराजित होने के बाद दो हिस्सों में बांट दिया गया। पाकिस्तान इसकी तस्दीक कर सकता है कि अपने मुल्क के बंटने से ज्यादा अपमानजनक कुछ नहीं होता है। वियतनाम युद्ध और इराक युद्ध में भी यही हुआ। इन दोनों जंगों में उलझने के बाद के 30-40 साल में अमेरिका अपना राष्ट्रीय उद्देश्य खोता हुआ दिखने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि अब चीन इसके रक्षा आवरण की परीक्षा लेने लगा है।
और मैं यह दांव लगाने को तैयार हूं कि चीन ने भी इस वायरस वाली बात को हद से ज्यादा ही चढ़ा दिया है। कुछ उसी तरह जैसे नेपोलियन और रूस पर हमले का हिटलर का फरमान।
सबक नदारद
भारत भी इस प्रवृत्ति का शिकार होने से बच नहीं पाया है। चीन से लगी सीमा पर हमारी 'फॉरवर्ड नीति' के तहत विवादित जगह पर सीमा चौकियां बनाई गईं जिसके बाद चीन ने 1962 में हमला कर दिया था। वह हौसला तोडऩे वाली शिकस्त थी।
अगली बड़ी गलती 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल लगाने की थी। उसने सबसे ज्यादा परेशान करने वाले हालात पैदा किए हैं। कार्यपालिका को संसद एवं न्यायपालिका के आगे अपनी बिसात खोनी पड़ी है जिससे नीतियां लागू करने की उसकी क्षमता कम हुई है। अब हमारे सामने यह विनाशकारी वायरस आ खड़ा हुआ है। इस संकट से निपटने के इस सरकार के तौर-तरीकों में वो तीनों ही चीजें शामिल हैं जिनका जिक्र मैंने शुरू में किया है: सरकारी एवं अफसरशाही की बेवकूफी, खुफिया नाकामी एवं घमंड। यह बता पाना नामुमकिन है कि वक्त एवं स्थान अलग होने के बावजूद ऐसा बार-बार क्यों होता है? लेकिन एक चीज तो साफ है कि इस परिपाटी को देखते हुए ऐसा होता रहेगा।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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