भारतीय हॉकी के सितारे और सामाजिक हकीकत (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता  

जिस दिन भारतीय महिला हॉकी टीम टोक्यो ओलिंपिक के सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हारी, दो व्यक्ति सुर्खियों में आए क्योंकि उन्होंने ओलिंपिक की सबसे खतरनाक फॉरवर्ड खिलाडिय़ों में गिनी जा रही वंदना कटारिया के घर के पास 'जश्न' मनाया जो दरअसल एक शर्मिंदा करने वाली हरकत थी। वंदना ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अहम मुकाबले में टीम की ओर से पहली हैट्रिक (एक मैच में तीन गोल) भी लगाई थी। इस जीत के साथ भारत अंतिम चार में पहुंचा था।


यह खराब 'जश्न' किस बात का था? क्योंकि ये व्यक्ति उच्च जाति के थे और वंदना एक दलित परिवार की हैं। स्थानीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार दोनों पुरुषों की समस्या यह थी कि महिला हॉकी टीम में कई दलित हैं। इसे राष्ट्रीय शर्म कहना और दोषी लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करना उचित है, हालांकि वंदना के भाई के हवाले से कहा गया है कि पुलिस थाने के अधिकारी उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दे रहे थे। हालांकि मैं इससे प्रेरणा लेकर एक जोखिम भरे क्षेत्र में प्रवेश कर रहा हूं और सवाल करना चाहता हूं कि आखिर क्रिकेट समेत अन्य खेलों से इतर हॉकी में ऐसा क्या है जो भारत की जाति, जातीयता, भौगोलिक और धार्मिकता आधारित विविधता को इतने बेहतर ढंग से पेश करती है।


मैं इसे जोखिम भरा क्षेत्र क्यों कहता हूं? पहली बात, इसलिए क्योंकि उच्च जाति जिसका तमाम बहसों और सोशल मीडिया पर दबदबा है उसे 'जाति' जैसे पिछड़े मुद्दों पर चर्चा करना पसंद नहीं क्योंकि ये भारत को 'पीछे' ले जाती हैं। जब भी कोई व्यक्ति क्रिकेट में पारंपरिक उच्च जातियों के दबदबे की बात करता है तो लोगों की नाराजगी देखते ही बनती है। प्रतिक्रिया इतनी तीव्र होती है कि हम एक साधारण बात कहने में भी घबराते हैं और वह यह कि भारतीय क्रिकेट में समावेशन बढऩे के साथ इसका स्तर भी सुधरा है। या एक सवाल कर सकते हैं कि अगर भारतीय क्रिकेट क्रांति तेज गेंदबाजों की बदौलत उभरी है तो और उसके पास बड़ी तादाद में तेज गेंदबाज हैं तो ये प्रतिभाएं कहां से आई हैं? यदि इससे किसी के सवर्ण गौरव को ठेस पहुंचती है तो मैं क्षमा चाहता हूं लेकिन भारतीय क्रिकेट में समावेशन बढऩे के बाद यह अधिक प्रतिभासंपन्न, आक्रामक, ऊर्जावान और सफल बनी है। इसके लिए टीम और बीसीसीआई नेतृत्व को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वहां सही मायनों में प्रतिभा का मान किया गया।


दूसरी ओर हॉकी में कुछ तो है जिसने हमेशा इस खेल को उपेक्षित रखा: अल्पसंख्यक, आदिवासी, गौण समझे जाने वाले वर्ग और जातियां इसमें प्रमुखता से दिखती हैं। हम समाजशास्त्र की बात नहीं कर सकते लेकिन इतिहास और तथ्यों की कर सकते हैं। अतीत में मुस्लिम और सिख, एंग्लो इंडियन, पूर्वी और मध्य भारत के मैदानों के वंचित आदिवासी वर्ग, मणिपुरी, कोदावा आदि दशकों तक हॉकी में अपनी प्रतिभा का हुनर बिखेरते रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तथा अन्य लोगों की इस बात के लिए आलोचना किउन्होंने याद दिलाया कि ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय पुरुष हॉकी टीम के आठ सदस्य उनके राज्य के हैं। उन्होंने सिख नहीं कहा लेकिन हमें याद रखना होगा।


हम तथ्यों और इतिहास पर भरोसा करेंगे। भारत ने पहली बार 1928 में एम्सटर्डम ओलिंपिक में हॉकी में भाग लिया था। ध्यान चंद टीम में थे लेकिन टीम के कप्तान का आधिकारिक नाम था जयपाल सिंह। उनका पूरा नाम है जयपाल सिंह मुंडा। आपको महानायक बिरसा मुंडा याद हैं? देश का पहला ओलिंपिक स्वर्णपदक एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में आया जो झारखंड के गरीब आदिवासी परिवार से था। मुझे नहीं लगता कि देश का कोई अन्य बड़ा खेल ऐसा दावा कर सकता है।


यह एक समृद्ध परंपरा की शुरुआत थी जहां पूर्वी-मध्य क्षेत्र का आदिवासी भारत निरंतर हॉकी की प्रतिभाएं देता रहा है। इसमें कुछ बेहतरीन बचाव करने वाले खिलाड़ी शामिल हैं। मौजूदा महिला टीम में दीप ग्रेस एक्का और सलीमा टेटे और पुरुष टीम में वीरेंद्र लाकड़ा और अमित रोहिदास इसका उदाहरण हैं। इनमें सलीमा स्ट्राइकर जबकि बाकी सभी डिफेंडर हैं। यदि ये पर्याप्त नहीं तो अतीत के माइकल किंडो और दिलीप टिर्र्की जैसे डिफेंडरों को याद कीजिए। 


इस परंपरा को आदिवासी क्षेत्रों में बनी कुछ बेहतरीन अकादमियों ने बढ़ावा दिया है। झारखंड के खूंटी और ओडिशा में सुंदरगढ़ और उसके आसपास ऐसी कई अकादमी हैं। जयपाल सिंह ने भारत को पहला ओलिंपिक स्वर्ण दिलाने अलावा अन्य महत्त्वपूर्ण काम किए। बचपन में ही एक ब्रिटिश पादरी परिवार ने उन्हें अपनी छत्रछाया में ले लिया था। उन्हें अध्ययन के लिए ऑक्सफर्ड भेजा गया जहां उन्होंने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। परंतु उन्होंने आईसीएस बनकर जीवन बिताने के बजाय भारत के लिए खेलना और काम करना चुना। वह आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में संविधान सभा में थे और भारतीयों को वैध रूप से शराब पीने पर हर घूंट के साथ उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमें देशव्यापी शराबबंदी के आसन्न संकट से बचाया था। उस गांधीवादी माहौल में संविधान सभा का मन शराबबंदी का था लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि शराब पीना हम आदिवासियों की परंपरा है, आप उस पर प्रतिबंध लगाने वाले कौन होते हैं?


हॉकी की बात करें तो पहली टीम में आठ एंग्लो इंडियन थे। गोलकीपर रिचर्ड एलन नागपुर में जन्मे और ओक ग्रोव मसूरी तथा सेंट जोसेफ नैनीताल में पढ़े थे। उन्होंने पूरी प्रतियोगिता में एक गोल नहीं होने दिया। यदि मैं यहां-वहां राह से भटक रहा हूं तो इसलिए कि मैं बताना चाहता हूं कि केवल क्रिकेट नहीं बल्कि सभी खेलों का इतिहास दिलचस्प किस्सों से भरा रहा है। बाकी खिलाडिय़ों की बात करें तो तीन मुस्लिम, एक सिख, युवा ध्यान चंद और झारखंड का एक आदिवासी कप्तान टीम का हिस्सा थे। बाद के ओलिंपिक में मुस्लिमों और सिखों की तादाद में इजाफा हुआ। इसीलिए विभाजन ने देश की हॉकी को झटका दिया। ढेर सारी प्रतिभाएं पाकिस्तान चली गईं और सन 1960 के ओलिंपिक में उसने भारत को स्वर्ण जीतने से रोक दिया।


चूंकि विभाजन के घाव हरे थे इसलिए पाकिस्तान हमारा नया प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बन गया, उसके साथ जंग भी होती रहीं। सन 1970 के आरंभ तक देश की राष्ट्रीय टीम में ज्यादा मुसलमान नहीं थे। भोपाल के शानदार स्ट्राइकर इनाम-उर-रहमान का कुख्यात मामला भी हुआ जिन्हें 1968 के मैक्सिको ओलिंपिक में ले जाया गया लेकिन उन पर भरोसा नहीं जताया गया। पाकिस्तान के खिलाफ तो कतई नहीं।


 


बाद में कई मुस्लिम हॉकी सितारे सामने आए। मोहम्मद शाहिद और जफर इकबाल ने भारत की कप्तानी की। सबसे चर्चित नाम है डिफेंडर असलम शेर खान का। भारत ने सन 1975 में कुआलालंपुर में इकलौता विश्व कप जीता था। सेमीफाइनल में मलेशिया के खिलाफ भारत एक गोल से पीछे था और खेल समाप्त होने में चंद मिनट बचे थे। कई पेनल्टी कॉर्नर भी मिल रहे थे लेकिन सुरजीत सिंह और माइकल किंडो उन्हें गोल में नहीं बदल पा रहे थे।


65वें मिनट में एक पेनल्टी कॉर्नर मिला (तब खेल 70 मिनट का होता था) जो आखिरी उम्मीद था। तीन बार (1948, 1952 और 1956) के ओलिंपिक चैंपियन कोच बलबीर सिंह सीनियर ने असलम को जीवन मरण का यह शॉट लेने बेंच से बुलाया। अगर आपको वह फुटेज मिले तो देखिए कैसे युवा असलम मैदान में आते हैं अपने गले से ताबीज निकालकर चूमते हैं और बराबरी का गोल दाग देते हैं। मैच अतिरिक्त समय में गया और स्ट्राइकर हरचरण सिंह जीत दिला दी। हम जानते हैं कि असलम शेर खान बाद में सांसद बने। आजादी के बाद उन्होंने ही मुस्लिमों के लिए भारतीय हॉकी के दरवाजे खोले। आप 1975 के विश्व कप के बाद की राष्ट्रीय हॉकी टीम खोजिए और आप पाएंगे कि यह रुझान मजबूत होता गया। हर भारतीय टीम चाहे महिला हो या पुरुष, उसमें विविधता निखरकर दिखती है। मणिपुर के मैती समुदाय की आबादी बमुश्किल 10 लाख है। टोक्यो में नीलकांत शर्मा और सुशीला चानू के रूप में पुरुष और महिला टीमों में उनकी भागीदारी देखने को मिली। हालिया अतीत को याद करें तो थोइबा सिंह, कोठाजीत चिंगलेनसाना और नीलकमल सिंह याद आते हैं। क्या क्रिकेट टीम में पूर्वोत्तर का कोई खिलाड़ी देखा है आपने?


आखिर सैकड़ों वर्षों से हॉकी वंचितों का खेल क्यों बना हुआ है? मुझसे मत पूछिए। मैं केवल हकीकत बता सकता हूं और याद दिला सकता हूं कि भारतीय क्रिकेट के उभार में समावेशन का योगदान है। यहां जाति और श्रेष्ठता की बेतुकी बहस बंद होनी चाहिए। मेरी बात उच्च जातियों के खिलाफ नहीं है। उनमें काबिलियत है लेकिन देश तो तभी समृद्ध होगा जब हम तमाम सामाजिक हिस्सों की प्रतिभाओं तक पहुंचेंगे। 

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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