अजय शाह
एक कमजोर आर्थिक आधार और फुकुशिमा हादसे ने परमाणु ऊर्जा को लेकर दुनिया भर में निराशा का माहौल बनाया है। यह परिदृश्य बदल रहा है। तकनीकी सुधार सुरक्षा मानकों को सशक्त बनाने के साथ ही कारोबारी व्यवहार्यता बढ़ा रहे हैं। यूक्रेन युद्ध और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वॉर्मिंग) ने जीवाश्म ईंधनों से पीछा छुड़ाने की महत्ता नए सिरे से रेखांकित की है। इस बीच अमेरिका में 50 मेगावॉट के स्मॉल मॉड्युलर रिएक्टर (एसएमआर) के डिजाइन को नियामकीय मंजूरी मिली है।
यदि ये उत्पाद व्यापक उत्पादन स्तर पर आते हैं तो कीमतों के मामले में बहुत लाभ मिलेगा। वर्ष 1979 में अमेरिका के थ्री माइल आइलैंड, 1986 के सोवियत रूस में चेर्नोबिल और विशेषकर 2011 में जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद परमाणु ऊर्जा से जुड़े सुरक्षा पहलुओं को लेकर संदेह खासा गहराता गया। चेर्नोबिल को तो एक अधिनायकवादी देश में लोक सेवकों की अक्षमता के रूप में समझाया जा सकता है, लेकिन फुकुशिमा को लेकर ऐसी कोई दलील नहीं, जो दुर्घटना एक स्वस्थ एवं उदार लोकतंत्र में घटी। वर्ष 2011 के बाद जर्मनी ने अपने सभी परमाणु संयंत्र बंद करने का फैसला किया। पूर्व जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल स्वयं क्वांटम केमिस्ट्री में पीएचडी किए हुए थीं और उन्होंने इससे जुड़े मुद्दों पर अपने भौतिकशास्त्री पति जोआकिम सावर से व्यापक मंत्रणा भी की थी। पहले उन्हें यही लगता था कि परमाणु ऊर्जा को लेकर संशयवादी लोग उससे जुड़े जोखिमों की सही समझ नहीं रखते, लेकिन फुकुशिमा हादसे के बाद उनका रुख भी बदल गया।
परमाणु ऊर्जा के लिए आर्थिक आधार भी कमजोर था। ब्रिटेन का ही उदाहरण लें। वहां 3,200 मेगावॉट के हिन्कले पॉइंट सी परमाणु संयंत्र को 2008 में हरी झंडी दिखाई गई। उसका निर्माण 2017 में जाकर शुरू हो पाया और 2017 तक उसके पूर्ण होने का अनुमान है। उसकी लागत 25 अरब ब्रिटिश पाउंड बताई जा रही है। यदि विकसित देशों की बात करें तो केवल फ्रांस में ही परमाणु ऊर्जा महत्त्वपूर्ण बनी हुई है।
हालांकि, हाल के वर्षो में परमाणु ऊर्जा के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है। दरअसल, जीवाश्म ईंधनों में सऊदी अरब से लेकर रूस जैसे अधिनायकवादी देशों का ही दबदबा है, जिसके चलते भू-राजनीतिक जोखिम उत्पन्न होते हैं। साथ ही जहां ऊर्जा भंडारण (स्टोरेज) और अक्षय ऊर्जा उत्पादन में उल्लेखनीय क्रांति हुई है, फिर भी परमाणु ऊर्जा के बिना कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन से मुक्ति की राह मिलना मुश्किल होगा। परंतु जोखिमों का क्या? चलिए, उनकी पड़ताल भी करते हैं। जब फुकुशिमा हादसा हुआ था तो परिदृश्य बहुत भयावह प्रतीत हुआ था। हालांकि समग्रता में देखें तो कुछ सकारात्मकता दिखती है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि जापान में जितनी मौतें फुकुशिमा हादसे के चलते हुए थीं, उससे कहीं अधिक लोग परमाणु ऊर्जा उत्पादन पर रोक लगाने की वजह से मर गए। दूसरी ओर यदि यूरोप के पास परमाणु ऊर्जा का और अधिक सहारा होता तो पुतिन उस युद्ध को छेड़ने से कुछ हिचकते, जिसमें अभी तक 30,000 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। जहां पारंपरिक विशाल परमाणु संयंत्र मुश्किलों से दो-चार होते आए हैं तो इस मामले में प्रगति छोटे संयंत्रों के रूप में होती गई। पश्चिम में पनडुब्बियां और विमानवाहक पोत कई दशकों से छोटे परमाणु संयंत्रों का उपयोग करते आए हैं और उनका सुरक्षा रिकॉर्ड एकदम दुरुस्त और सटीक रहा है।
अब लागत की बात आती है। क्या बड़ों की तुलना में छोटे संयंत्रों की लागत कम आ सकती है? इसके लिए असेंबली लाइन यानी सुनियोजित श्रृंखला आधारित विनिर्माण की आवश्यकता होगी। अतीत में भी इसके उदाहरण दिखते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने पनडुब्बी समर कौशल के माध्यम से ब्रिटेन पर शिकंजा कसने का प्रयास किया। जुलाई से अक्टूबर, 1940 के दौरान मित्र गुट वाले देशों की 15 लाख टन क्षमता वाली पोत संपदा डूब गई। तब मित्र राष्ट्रों ने पोत निर्माण के लिए आधुनिक विनिर्माण की क्षमताओं का उपयोग किया। उससे पहले तक पोत हस्तशिल्प-कलात्मक ढंग से बनाए जाते थे। उस वक्त की नजाकत को भांपते हुए अमेरिकियों ने 10,000 टन क्षमता वाले एक सामान्य डिजाइन को मानक बनाते हुए उसे ‘द लिबर्टी शिप’ का नाम दिया। उन्होंने उसे असेंबली लाइन पर ही बनाया। वर्ष 1941 में बना पहला पोत 244 दिनों में बनकर तैयार हुआ और 1943 तक इस अवधि को घटाकर वे 39 दिनों तक ले आए।
हम परमाणु रिएक्टरों के मामले में वैसी ही यात्रा आरंभ करने के मुहाने पर हैं। छह वर्षों की मूल्यांकन प्रक्रिया के बाद अमेरिकी परमाणु नियामकीय आयोग (एनआरसी) ने एक स्मॉल रिएक्टर डिजाइन को स्वीकृति प्रदान की है। इस डिजाइन को वीओवाईजीआर (वॉयगर) नाम दिया गया है, जिसे अमेरिकी कंपनी न्यूस्केल ने तैयार किया है। यह अमेरिका में इस्तेमाल की स्वीकृति प्राप्त करने वाला सातवां रिएक्टर डिजाइन है। अमेरिकी इतिहास में इससे पहले केवल छह डिजाइनों के सिर ही ऐसी सफलता का सेहरा बंधा है। वॉयगर परमाणु रिएक्टर किसी साइट पर नहीं, बल्कि फैक्टरी में तैयार किया गया है। इसका प्रत्येक मॉड्यूल 4.6 मीटर चौड़ा, 23 मीटर लंबा और यह 50 मेगावॉट बिजली बनाता है। इसके सुरक्षा मानदंड भी पारंपरिक रिएक्टरों की तुलना में बुनियादी रूप से खासे बेहतर हैं, जिसमें पावर कटौती की स्थिति में परमाणु प्रक्रिया शांत पड़ जाती है।
मौजूदा आकलनों के हिसाब से भी यदि 600 मेगावॉट क्षमता के लिए 12 मॉड्यूल लगाए जाएं तो बिजली की लागत (विकसित देशों की स्थितियों के अंतर्गत) 41 डॉलर से 65 डॉलर प्रति मेगावॉट आवर (एमडब्ल्यूएच) के बीच आने का अनुमान है। यह अक्षय ऊर्जा के साथ सही तुलना की स्थिति में है, जिसकी लागत 30 से 45 डॉलर एमडब्ल्यूएच आती है। भारत में दोनों ही लागत (परमाणु और अक्षय ऊर्जा) संतुलित रूप से अधिक होंगी, जो एक देश के रूप में भारत के जोखिम और वित्तीय तंत्र की मुश्किलों को दर्शाती है।
जहां तक एसएमआर के विकास की बात है तो जीई हिताची परमाणु ऊर्जा और रॉल्स रॉयस इत्यादि फर्मों में इस पर काम हो रहा है। प्रतिस्पर्धा, नवाचार, व्यापक उत्पादन से मिली सीख और असेंबली लाइंस पर विनिर्माण जैसे पहलू इसके लागत ढांचे में लाभ प्रदान करने में सहायक होंगे।
भारत में अभी तक परमाणु उत्पादन उतना कारगर नहीं रहा। सरकारी सेक्टर समस्याओं से ग्रस्त है और निजी कंपनियों द्वारा बनाए परमाणु रिएक्टरों के आयात को लेकर भी प्रगति आवश्यक है। निःसंदेह अमेरिका-भारत के बीच हुए 2008 का परमाणु करार कूटनीति और राज्य-नीति की बड़ी जीत थी, लेकिन नागरिक परमाणु जवाबदेही एक अवरोध बनी हुई है। पश्चिम से आयातित बड़े परमाणु संयंत्र आर्थिक दृष्टि से आकर्षक नहीं। ऐसी स्थिति में भारत में विद्युत तंत्र ने शून्य उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्ति के लिए अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा भंडारण की जुगलबंदी पर दांव लगाया है।
यदि एसएमआर तकनीक चरणबद्ध रूप से कीमत मोर्च पर गिरावट वाले रुख का संकेत देती है तो यह परिदृश्य बदल सकता है। हमारे लिए इस पर व्यापक समझ बनाना अभी शेष है। फिर भी, यदि यह कारगर रहता है तो भारत में कंपनियों को मुफीद लग सकता है। फैक्टरी के किसी कोने में लगा छोटा सा संयंत्र 50 मेगावॉट बिजली बनाने में जो सक्षम होगा।
इंजीनियरिंग नवाचार ही कार्बन संक्रमण के केंद्र में हैं। निराशावादी लोग दुनिया में जीवाश्म ईंधन के पदचिह्नों की ओर देखते हैं और इन उद्योगों पर नजर टेढ़ी करते हैं कि उन्हें कैसे तेजी से बंद किया जा सकता है। बहरहाल, जब सरकारें कार्बन उत्सर्जन से होने वाले नुकसान के अनुपात में करों का हथौड़ा चलाएंगी तो निजी ऊर्जा कंपनियां भी विकल्प तलाशेंगी। परिणामस्वरूप, अक्षय, परमाणु और ऊर्जा भंडारण में नवाचार और मांग संबंधी सक्षमता हमें चौंकाएगी। जहां तक भारत की बात है तो हमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उस चीज का आसानी से फायदा मिलता है जो दुनिया के किसी भी कोने में विकसित हो रही है, जैसा कि सोलर सेल के मामले में देखने को मिला था।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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